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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः
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उदा०
- (अ) कर्त्ता । करनेवाला । हर्ता । हरण करनेवाला । (इ) किरति । वह फेंकता है। गिरति। वह निगलता है। (उ) द्वैमातुरः । दो माताओं का पुत्र । त्रैमातुरः । तीन माताओं का पुत्र (राम)।
सिद्धि - (१) कर्त्ता । कृ+तृच् । कृ+तृ । क् अर्+तृ । कर्तृ+सु । कर्ता। यहां 'सर्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से क अंग के ऋ को 'अ' गुण होता है और प्रकृत सूत्र से उसे रपर किया जाता है- अर् ।
(२) किरति । कृ+लट् । कृ+तिप् । कृ+श+ति । कृ+अ+ति । क् इर्+अ+ति । किरति । यहां ऋत इद् धातो:' (७ 1१।१००) से कॄ अंग के 'ऋ' के स्थान में 'ई' आदेश होता है और प्रकृत सूत्र से उसे रपर किया जाता है- इर् ।
(३) द्वैमातुरः । द्विमातृ+अण् । द्वैमातुर+अ । द्वैमातुर+सु । द्वैमातुरः । यहां 'द्विमातृ' शब्द से अपत्य अर्थ में 'मातुरुत् संख्यासंभद्रपूर्वाया:' (४ | १|११५) से अण् प्रत्यय और मातृ शब्द के ऋकार को उकार आदेश होता है । प्रकृत सूत्र से उसे रपर किया जाता है-उर्
अन्त्य आदेश:
(५) अलोऽन्त्यस्य । ५१ ।
प०वि० - अल: ६।१ अन्त्यस्य ६ ।१। अन्ते भवम्-अन्त्यम्, तस्य-अन्त्यस्य (तद्धितवृत्ति: ) ।
अनु० - 'षष्ठी' इत्यनुवर्तते ।
अन्वयः - षष्ठी (आदेश: ) अन्त्यस्यालः ।
अर्थ:- षष्ठीनिर्दिष्टस्य य आदेशः सोऽन्त्यस्याल: स्थाने वेदतिव्य: । उदा० - इद् गोण्या :- पञ्चगोणि: । दशगोणि: ।
आर्यभाषा - अर्थ - (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति का निर्देश करके कहा हुआ आदेश ( अन्त्यस्य ). अन्तिम (अल: ) अल् के स्थान में होता है । इद्गोण्या :- पञ्चगोणिः । पांच गोणी परिमाण से खरीदा हुआ। दशगोणि: । दश गोणी परिमाण से खरीदा हुआ।
सिद्धि-पञ्चगोणिः । पञ्चगोणी+ठक् । पञ्चगोणी+० । पञ्चगोण् इ+० । पञ्चगोणि+सु । पञ्चगोणिः । पञ्चभिर्गोणीभिः क्रीत इति पञ्चगोणि: । यहां तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च (२1१1५१) से तद्धितार्थ में द्विगुसमास करके, तेन क्रीतम्' (५1१1३७) से क्रीत अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय, ‘अध्यर्धपूर्वाद्विगोर्लुगसंज्ञायाम्' (५ । १ । २८ ) से ठक् प्रत्यय का लुक् होता है। तत्पश्चात् 'इद् गोण्या :' ( १/२/५० ) से विहित इकार आदेश प्रकृत सूत्र से अन्तिम - अल् के स्थान में किया जाता है। इसी प्रकार से दशभिर्गोणीभिः क्रीत इति दशगोणिः । गोणी = परिमाणविशेष ।
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