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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (६।४।१४८) से अकार का लोप और पोटायुवति०' (२।१।६५ ) से कर्मधारय समा होता है। यहां पुंवत् कर्मधारय०' (६।३।४२) से पुंवद्भाव करते समय अर्थ के सादृश्य से वतण्ड शब्द का अपत्यवाची वातण्ड्य शब्द ही आदेश होता है, वतण्ड शब्द नहीं । ५२ (३) गुण | पाकः । पच्+घञ् । पाच्+अ । पाक्+अ । पाक+सु । पाकः । यहां 'चजो: कु घिण्ण्यतो:' ( ७ । ३ । ५२ ) से कुत्व करते समय अल्पप्राण तथा अघोषगुणवाले चकार के स्थान में अल्पप्राण तथा अघोषगुणवाला ककार ही आदेश होता है । इसी प्रकार त्यज् धातु से घञ् प्रत्यय करने पर त्याग: ' शब्द सिद्ध होता है। यहां भी घोष तथा अल्पप्राण गुणवाले जकार के स्थान में घोष तथा अल्पप्राण गुणवाला कार ही आदेश होता है। (४) प्रमाण । अमुष्मै । अदस्+ ङे । अदस्+स्मै । अमु+मै । अमुष्मै । यहां 'अदसो सेर्दादु दो म:' ( ८121८०) से अकार के स्थान में उकार आदेश करते समय ह्रस्व प्रमाणवाले 'अ' के स्थान में ह्रस्व प्रमाणवाला 'उ' ही आदेश होता है और अमुभ्याम्, यहां उक्तसूत्र से दीर्घ आकार के स्थान में दीर्घ प्रमाणवाला दीर्घ ऊकार ही आदेश होता है। विशेष- प्रश्न- 'षष्ठी स्थानेयोगा' ( १ । १ । ४९ ) से स्थाने पद की अनुवृत्ति की जा सकती है, फिर यहां 'स्थाने' पद का ग्रहण क्यों किया गया है ? उत्तर- यहां 'स्थाने' पद का पुनः ग्रहण इसलिये किया गया है कि 'यत्रानेकविधानान्तर्यं तत्र स्थानत एवान्तर्यं बलीय:' (परिभाषा) जहां अनेक प्रकार का आन्तर्य (सादृश्य) हो वहां स्थानकृत आन्तर्य को ही बलवान् माना जाये। जैसे-चेता, स्तोता इत्यादि में चि और स्तु आदि धातुओं को गुण कार्य करते समय प्रमाणकृत सादृश्य से ह्रस्व इ और उ के स्थान में ह्रस्व 'अ' गुण प्राप्त होता है, किन्तु स्थानकृत आन्तर्य के बलवान् होने से इके स्थान में ए तथा उ के स्थान में ओ गुण किया जाता है। रपर आदेश: (४) उरण् रपरः । ५० । प०वि० उ: ६ |१ अण् १ ।१ रपरः १ । १ । स०-रः परो यस्मात् स रपरः ( बहुव्रीहि: ) । अर्थ:- ऋकारस्य स्थाने विधीयमानोऽण् आदेशो रपरो भवति । उदा०- (अ) कर्ता । हर्ता । (इ) किरति । गिरति । ( उ ) द्वैमातुरः । त्रैमातुरः । आर्यभाषा - अर्थ - ( उ ) ॠवर्ण के स्थान में विधीयमान (अण् ) अण् आदेश ( रपरः ) रपर होता है। जिससे परे र हो उसे रपर कहते हैं । अण्-अ, इ, उ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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