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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् डित्-आदेश
(६) डिच्च।५२। प०वि०-ङित् ११ च अव्ययपदम् । स०-ड इत् यस्य स ङित् (बहुव्रीहि:)। अनु०-षष्ठी अलोऽन्त्यस्य इत्यनुवर्तते। अन्वय:-षष्ठी (आदेश:) ङिच्च अन्त्यस्याल: ।
अर्थ:-षष्ठीनिर्दिष्टस्य यो ङित् आदेश: सोऽपि अन्त्यस्याल: स्थाने वेदितव्यः।
उदा०-आनङ् ऋतो द्वन्द्वे-मातापितरौ। होतापोतारौ।
आर्यभाषा-अर्थ-(षष्ठी) षष्ठी विभक्ति का निर्देश करके कहा हुआ (डित) डित आदेश (च) भी (अन्त्यस्य) अन्तिम (अल:) अल् के स्थान में होता है।
उदा०-आनङ् ऋतो द्वन्द्वे-मातापितरौ। माता और पिता। होतापोतारी। होता और पोता (पवित्र करनेवाला)।
सिद्धि-(१) मातापितरौ । माता च पिता च तौ मातापितरौ। मातृ+पितृ+औ। मात् आनङ् पित+औ। मातापितरौ। यहां 'आनङ् ऋतो द्वन्द्वे (६ ॥३।२५) से विहित डित् आनङ आदेश मातृ शब्द के अन्तिम ऋ के स्थान में होता है। इसी प्रकार से होता च पोता च तौ होतापोतारौ। होत+पोत+औ। होतापोतारौ।
विशेष-प्रश्न-जीवताद् भवान्, जीवतात् त्वम् । यहां तुह्योस्तातडमशिष्यन्तरस्याम् (७।१।३५) से तु और हि के स्थान में विहित डित् तातङ् आदेश अन्तिम अल् के स्थान में क्यों नहीं होता?
उत्तर-तातङ् आदेश में डित्करण डिति च' (१।११५) से गुण के प्रतिषेध के लिये है, अत: वह अन्तिम अल् के स्थान में न होकर 'अनेकाशित्सर्वस्य' (१।११५५) से सवदिश होता है। आनङ् के डित्व का अन्य कोई प्रयोजन नहीं, अत: वह अन्तिम अल् के स्थान में होता है। पर आदेशः
(७) आदेः परस्य।५३। प०वि०-आदे: ६१ परस्य ६।१। अनु०-षष्ठी, अल, इत्यनुवर्तते। अन्वय:-षष्ठी परस्यादेरल: ।
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