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________________ ४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम् नियम निश्चित करें और अशुद्ध प्रयोगों को ठीक करें। उन्होंने शुद्ध सामग्री के संग्रह के लिए यात्रा की। उस समय ईश्वरदेव से उनकी भेंट हुई जिनसे उन्होंने अपनी योजना बताई । ईश्वरदेव ने कहा- यह अद्भुत है, मैं इसमें तुम्हारी सहायता करूंगा । ऋषि पाणिनि उनसे उपदेश प्राप्त करके एकान्त स्थान में चले गए। वहां उन्होंने निरन्तर परिश्रम किया और अपने मन की सारी शक्ति लगाई । इस प्रकार अनेक शब्दों का संग्रह करके उन्होंने व्याकरण का एक ग्रन्थ बनाया जो एक सहस्र श्लोक परिमाण का था। आरम्भ से लेकर उस समय तक अक्षरों और शब्दों के विषय में जितना ज्ञान था, उसमें से कुछ भी न छोड़ते हुए सम्पूर्ण सामग्री उसमें सन्निविष्ट कर दी गई। समाप्त करने के बाद उन्होंने इस ग्रन्थ को राजा के पास भेजा जिसने उसका बहुत सम्मान किया और आज्ञा दी कि राज्य भर में इसका प्रचार किया जाये और शिक्षा दी जाये। और यह भी कहा कि जो आदि से अन्त तक इसे कण्ठ करेगा उसे एक सहस्र स्वर्णमुद्रा का पुरस्कार मिलेगा। तब से इस ग्रन्थ को आचार्यों ने स्वीकार किया और अविकल रूप में सब के हित के लिए इसे वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित रखते रहे । यही कारण है कि इस नगर के विद्वान् ब्राह्मण व्याकरणशास्त्र के अच्छे ज्ञाता हैं और उनकी प्रतिभा बहुत अच्छी है। (सियुकि पृ० ११४- ११५) (पा०का० भारतवर्ष पृ० १७) । पाणिनि का स्थिति काल पाणिनि मुनि के स्थितिकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद है । पाणिनिकालीन भारतवर्ष के लेखक डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल लिखते हैं १. “बौद्ध एवं ब्राह्मण साहित्य में प्राचीन अनुश्रुति है कि पाणिनि किसी नन्दवंशीय राजा के समकालीन थे । तिब्बती लेखक तारानाथ ने पाणिनि और नन्दराज की सम-सामयिकता स्वीकार की है । (बौद्ध धर्म का इतिहास पृ० १६०८ ) । सोमदेव ने कथासरितसागर में और क्षेमेन्द्र ने बृहत् कथामंजरी में लिखा है कि पाणिनि नन्दराजा की सभा में पाटलिपुत्र गये थे । बौद्ध ग्रन्थ मञ्जुश्री मूलकल्प से इस परम्परा का समर्थन होता है। उसके अनुसार पुष्पपुर में नन्दराजा होगा और पाणिनि नामक ब्राह्मण उसका अन्तरङ्ग मित्र होगा । मगध की राजधानी में अनेक तार्किक ब्राह्मण राजा की सभा में होंगे और राजा उन्हें दान - मान से सम्मानित करेगा।” (मञ्जुश्री मूलकल्प पटल ५३, पृ० ६११) । ताराचन्द के अनुसार नन्दवंशीय सम्राट् महापद्मनन्द के पिता नन्द पाणिनि के मित्र थे । महानन्दिन् का नाम महानन्द या केवल नन्द था । ये ही पाणिनि के समकालीन और संरक्षक मगध वंश के सम्राट् थे। जिनका समय पांचवीं शती ई० पूर्व के मध्यभाग में था (पा०का० भारतवर्ष पृ० ४७२-७३)। २. 'संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास' नामक ग्रन्थ के रचयिता महाविद्वान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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