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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः
४७ पूर्ववत् क्त प्रत्यय और पूर्ववत् 'र' को 'ऋ' सम्प्रसारण होकर 'अ' को पूर्वरूप 'ऋ' होता हैं। आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७।१।३५) से 'इट' का आगम और उसे 'ग्रहोऽलिटि दीर्घः' (७।२।३०) से दीर्घ होता है।
विशेष-प्रश्न-यहां यण के स्थान में भूत और भावी इक् की सम्प्रसारण संज्ञा की गई है। भूत और भावी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-इस शब्दशास्त्र में सम्प्रसारणविषयक दो प्रकार का विधान मिलता है। वचिस्वपियजादीनां किति (६।१।१५) से कहा गया है कि वच् आदि धातुओं को सम्प्रसारण हो जाये। जब यहां य के स्थान में इ, व् के स्थान में उ और र् के स्थान में ऋ हो जाता है, तब यह कहते हैं कि सम्प्रसारण होगया है और सम्प्रसारणाच्च (६।१।१०८) में कहा गया है कि सम्प्रसारण से पर वर्ण को पूर्वरूप एकादेश हो जाये। यह भूत सम्प्रसारण है। इसलिये यहां यण के स्थान में भूत और भावी दोनों अवस्थावाले इक् की सम्प्रसारण संज्ञा की गई है।
आगमविधि टित्-कितौ
(१) आद्यन्तौ टकितौ ।४५। प०वि०-आदि-अन्तौ १।२ टकितौ १।२।
स०-आदिश्च अन्तश्च तौ-आद्यन्तौ (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। टश्च कश्च तौ-टको। इच्च इच्च तौ-इतौ। टकौ इतौ ययोस्तौ-टकितौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहि:)।
अन्वय:-ट-कितौ आद्यन्तौ। अर्थ:-टित्-कितावागमौ यथासंख्यमादावन्ते च भवत: । उदा०-(टित्) लविता । (कित्) भीषयते।
आर्यभाषा-अर्थ-(ट-कितौ) टित् और कित् आगम यथासंख्य (आदि-अन्तौ) आदि और अन्त में होते हैं। टित आगम जिसको विधान किया गया है उसके आदि में होता है और कित् आगम जिसको विधान किया गया है उसके अन्त में होता है।
उदा०-(टित्) लविता। काटनेवाला। (कित्) भीषयते। वह डराता है।
सिद्धि-(१) लविता। लू+तृच् । लू+इट्+तु। लो+इ+तृ । लव्+इ+तृ । लवितृ+सु। लवित अनङ्+सु । लवितन्+सु। लवितान+स् । लवितान्+० । लविता। यहां लूज छेदने (क्रया उ०) धातु से 'एवुल्तृचौ ३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय, आर्धधातुकस्येड् वलादे:' (७।२ ।३५) से तृच' प्रत्यय के आदि में स्ट्' का आगम, सार्वधातुकार्धधातुकयो:'
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