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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (७।३।८४) से अङ्ग को गुण, एचोऽयवायावः' (६।१।६८) से 'अव्’ आदेश, ऋदुशनस०' (७।१।९४) से अङ्ग के 'ऋ' को 'अन' आदेश, सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ (६।४।८) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ हल्डच्याब्भ्यो०' (६।१।६८) से 'सु' का लोप और 'नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२७) से न का लोप होता है। इस सूत्र से 'इट' का आगम टित होने से तिच्' प्रत्यय के आदि में किया जाता है।
(२) भीषयते । भी+णिच् । भी+युक्+इ। भी+ष्+इ। भीषि+लट् । भीषि+त। भीषि+शप्+त। भीषि+अ+त। भीषे+अ+त। भीषय्+अ+ते। भीषयते। यहां त्रिभी भये (जु०प०) धातु से हेतुमति च' (३।१।१६) से 'णिच्' प्रत्यय, भियो हेतुभये षुक्' (७।३।४०) से अङ्ग को 'षुक्’ का आगम सनाद्यन्ता धातवः' (३।१।३२) से णिजन्त की धातु संज्ञा होकर, उससे वर्तमाने लट्' (३।२।१२६) से लट्' प्रत्यय, तिप्तझि०' (३।४।७८) से 'ल' के स्थान में त' आदेश, कर्तरि शप्' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण प्रत्यय, सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से अंग को गुण, 'एचोऽयवायावः' (६।१।६८) से 'अव्' आदेश और टित आत्मनेपदानां टेरे' (३।४।७९) से 'त' प्रत्यय केटि भाग को एकार आदेश होता है। यहां षुक्' आगम कित् होने से 'भी' अंग के अन्त में किया गया है। मित्
(२) मिदचोऽन्त्यात् परः।४६। प०वि०-मित् १।१ अच: ५।१ अन्त्यात् ५।१ पर: १।१।
स०-म इत् यस्य स मित् (बहुव्रीहिः)। अन्ते भवम् अन्त्यम् तस्मात्-अन्त्यात् (तद्धितवृत्ति:)।।
अन्वयः-अन्त्याद् अच: परो मित्। अर्थ:-अचां मध्ये योऽन्त्योऽच्, तस्मात्परो मिद् आगमो भवति । उदा०-अवरुणद्धि। मुञ्चति। पयांसि ।
आर्यभाषा-अर्थ-(मित्) मित् आगम (अन्त्यात्) अन्तिम (अच:) अच् से (पर:) परे होता है।
उदा०-अवरुणद्धि। रोकता है। मुञ्चति । छोड़ता है। पयांसि। नाना प्रकार के जल।
सिद्धि-(१) अवरुणद्धि । अव+रुध्+लट् । अव+रुध्+तिम् । अव+रुश्नम् ध्+ अव+रुन+ति। अव+रुनध्+धि। अव+रुन्द्+धि। अव+रुणद्+धि। अवरुणद्धि। २ अव उपसर्गपूर्वक रुधिर् आवरणे (रुधा०प०) धातु से वर्तमाने लट्' (३।२।१२६) लट्' प्रत्यय, तिप् तस् झि०' (३।४।७८) से ल् के स्थान में तिप्' आदेश, रुधादिभ्यः
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