SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् प्रश्न-यहां इति शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है ? उत्तर-इस शब्दशास्त्र में स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा' (१९६८) से शब्द का अपना रूप ग्रहण किया जाता है। जैसे-'अग्नेर्डक्' (४।२।३३) कहा तो अग्नि शब्द से ढक् प्रत्यय किया जाता है, उसके अर्थ अंगार से नहीं। यदि सूत्र में न वा विभाषा' इतना ही कहा जाये तो न और वा शब्दों की विभाषा संज्ञा हो जाये जो कि आचार्य पाणिनि को अभीष्ट नहीं है। अत: यहां इतिकरण अर्थ ग्रहण के लिये किया गया है। इससे न और वा शब्दों का जो निषेध और विकल्प अर्थ है उसकी विभाषा संज्ञा होती है, न और वा शब्दों की नहीं। सम्प्रसारणसंज्ञा (१) इग् यणः सम्प्रसारणम्।४४। प०वि०-इक् ११ यण: ६१ सम्प्रसारणम् १।१ । अन्वय:-यण इक् सम्प्रसारणम् । अर्थ:-यण: स्थाने यो भूतो भावी वा इक् स सम्प्रसारणसंज्ञको भवति। __उदा०-य् (इ) इष्टम् । व् (उ) उप्तम्। र (ऋ) गृहीतम् । ल (ल) x। आर्यभाषा-अर्थ-(यण:) यण के स्थान में जो भूत अथवा भावी (इक्) इक् है, उसकी (सम्प्रसारणम्) सम्प्रसारण संज्ञा होती है। उदा०-य (इ) इष्टम् । यज्ञ किया। व् (उ) उप्तम्। बोया। र (ऋ) गृहीतम्। ग्रहण किया। ल् (लु) । सिद्धि-(१) इष्टम् । यज्+क्त । यज्+त । इ अज्+त। इज्+त। इष्+त। इष्+ट । इष्ट+सु। इष्टम्। यहां यज् देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वा०उ०) धातु से निष्ठा' (३।२।१०२) से भूतकाल में क्त प्रत्यय, वचिस्वपियजादीनां किति (६।१।१५) से 'य' को 'इ' सम्प्रसारण, सम्प्रसारणाच्च' (६।१।१०८) से 'अ' को पूर्वरूप 'इ' वश्च भ्रस्ज०' (८।२।३०) से ज्' को '' तथा 'टुना ष्टुः' (८।४।४१) से 'त' को 'ट'. होता है। (२) उप्तम् । वप्+क्त । वप्+त। उ अ प्+त। उप्+त। उप्त+सु । उप्तम् । यहां डुवप् बीजसन्ताने छेदने च' (भ्वादि) धातु से पूर्ववत् क्त प्रत्यय और पूर्ववत् 'व' को 'उ' सम्प्रसाण होकर 'अ' को पूर्वरूप उ' होता है। (३) गृहीतम् । ग्रह+क्त। ग्रह+त। गृ ह्+त। गृह+त। गृह+इट्+त। गृह+इ+त ।गृह+ई+त। गृहीत+सु। गृहीतम्। यहां ग्रह उपादाने' (क्रया०प०) धातु से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy