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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः उदा०-शुशाव। शुशुवतुः । शिश्वाय। शिश्वियतुः ।
आर्यभाषा-अर्थ-(न, वा इति) निषेध और विकल्प की (विभाषा) विभाषा संज्ञा होती है। शुशाव। वह बढ़ा। शुशुवतुः । वे दोनों बढ़े। शिश्वाय। शिश्वियतुः। अर्थ पूर्ववत् है।
सिद्धि-(१) शुशाव। शिव+लिट् । शिव+तिप् । शिव+णल। शिव+अ। शुट+। शु+अ। शु+शु+अ। शु+शौ+अ। शु+शाव्+अ। शुशाव। यहां टुओश्वि गतिवृद्ध्यो :' (भ्वा०आ०) धातु से परोक्षे लिट्' (३।१।११५) से लिट्' प्रत्यय, तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से 'ल' के स्थान में तिप्' आदेश, 'परस्मैपदानां णल०' (३।४।८१) से तिप् के स्थान में 'णल' आदेश, विभाषा श्वे:' (६।१।३०) से व को उ सम्प्रसारण, सम्प्रसारणाच्च (६।१।१०८) से इ को पूर्वरूप उ, 'अचो णिति' (७।१।११५) से उ को वृद्धि औ, (एचोऽयवायाव:' (६।१।७८) से औ को आव् आदेश होता है। यहां एक पक्ष में विभाषा श्वे:' ६।१।३०) से व् को उ सम्प्रसारण होगया।
(२) शिश्वाय। शिव+लिट। शिव+तिप्। शिव+णल। शिव+अ। शिव+शिव+अ। शि+श्वि+अ। शि+श्वै+अ। शि+श्वाय्+अ। शिश्वाय। यहां विभाषा श्वे:' (६।१।३०) से दूसरे पक्ष में सम्प्रसारण नहीं हुआ, अपितु शिव धातु को लिटि धातोरनभ्यासस्य (६।१८) से द्वित्व 'अचो णिति (७।१।११५) से वृद्धि और एचोऽयवायाव:' (६।१।७८) से आय आदेश होता है। इस प्रकार विभाषा के बल से शिव धातु के लिट्लकार में दो रूप बनते हैं।
विशेष-प्रश्न-यहां न और वा की विभाषा संज्ञा की गई है। वा की ही विभाषा संज्ञा क्यों न की जाये। न कि विभाषा संज्ञा करने का क्या लाभ है ?
उत्तर-इस शब्दशास्त्र में प्राप्त, अप्राप्त और उभयत्र तीन प्रकार की विभाषा हैं। जो किसी की प्राप्ति में विभाषा का आरम्भ किया जाता है उसे प्राप्त विभाषा कहते हैं। जो किसी की अप्राप्ति में विभाषा का आरम्भ किया जाता है उसे अप्राप्त विभाषा कहते हैं। जो किसी की प्राप्ति में तथा किसी की अप्राप्ति में विभाषा का आरम्भ किया जाता है उसे उभयत्र विभाषा कहते हैं। विभाषा के प्रकरण में पहले प्राप्त और अप्राप्त विषय को 'न' के द्वारा सम किया जाता है। उस विषय के समीकरण के पश्चात् वहां 'वा' के द्वारा विकल्प का विधान किया जाता है। जैसे विभाषा श्वे:' (६।१।३०) से शिव धातु को लिट्
और यङ् में विभाषा सम्प्रसारण का विधान किया गया है। यहां वचिस्वपियजादीनां किति (६।१।१५) से कित् विषय में नित्य सम्प्रसारण की प्राप्ति थी और यङ् प्रत्यय के डित् होने से डित् विषय में किसी से सम्प्रसारण की प्राप्ति थी ही नहीं। इसलिये प्रथम न' के द्वारा विषय का समीकरण किया जाता है कि किसी से प्राप्ति थी अथवा नहीं थी। यदि थी तो उसे न' के कुठार से हटा दिया जाता है और 'वा' से विकल्प कर दिया जाता है। इसलिये न और वा दोनों की विभाषा संज्ञा की गई है।
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