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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः
आर्यभाषा - अर्थ - (सम्बुद्धौ) सम्बुद्धिनिमित्तक जो (ओत् ) ओकार है उसकी (शाकल्यस्य) शाकल्य आचार्य के मत में (प्रगृह्यम् ) प्रगृह्य संज्ञा होती है । (अनार्षे) अवैदिक (इतौ) इति शब्द के परे होने पर ।
उदा०-वायो इति (शाकल्य के मत में) वायविति (पाणिनि के मत में ) । सिद्धि-वायो इति। यहां वायो पद में सम्बुद्धिनिमित्तक ओकार है। इसकी शाकल्य आचार्य के मत में प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृति भाव से रहता है। यहां 'एचोऽयवायाव:' ( ६ 1१।७८) से अव्- आदेश नहीं होता है ।
(२) वायविति । वायो+इति = वायविति। यहां ओकार की पाणिनि मुनि के मत में प्रगृह्य संज्ञा न होने से 'एचोऽयवायाव:' ( ६ । १।७८) से अव्- आदेश हो जाता है। ॐ
उञ,
(७) उञ ऊँ।१७।
प०वि० - उञः ६।१ ॐ १ । १ ।
अनु०-शाकल्यस्येतावनार्षे, प्रगृह्यम् इति चानुवर्तते । अस्य सूत्रस्य योगविभागं कृत्वा व्याख्या क्रियते(क) उञः ।
अन्वयः-उञः शाकल्यस्य प्रगृह्यम् अनार्षे इतौ । अर्थः-उञः शब्दस्य शाकल्यस्याचार्यस्य मतेन प्रगृह्यसंज्ञा भवति, अनार्षे ( अवैदिके) इति शब्दे परतः । उ इति ( शकल्यमते) विति (पाणिनिमते) ।
आर्यभाषा - अर्थ - (उञः) उञ् शब्द की (शाकल्यस्य) शाकल्य आचार्य के मत में (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है, (अनार्षे) अवैदिक ( इतौ ) इति शब्द के परे होने पर । उदा० - उ इति (शाकल्य के मत में) विति (पाणिनि के मत में ) उ = वितर्क ( विचार करना) ।
सिद्धि-(१) उ इति। यहां उञ् की शाकल्य आचार्य के मत में प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृतिभाव से रहता है। यहां 'इको यणचि' (६/१/७७ ) से प्राप्त यण्- आदेश (व) नहीं होता ।
(२) विति - उ + इति = विति। यहां उञ् की पाणिनि मुनि के मत में प्रगृह्यसंज्ञा न होने से 'इको यणचि' (६ 1१1७७) से प्राप्त यण् आदेश (व्) हो जाता है।
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