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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) अ अपेहि । यहां 'अ' एकाच मात्र निपात है। इसकी प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृतिभाव से रहता है। अक: सवर्णे दीर्घः' (६।१।१०१) से प्राप्त सवर्ण दीर्य नहीं होता है।
(२) इ इन्द्रं पश्य आदि उदाहरणों में भी 'अ अपेहि' के समान कार्य समझ लेवें। ओदन्त-निपातः
(५) ओत्।१५। प०वि०-ओत् ११ अनु०-निपात:, प्रगृह्यम् इत्यनुवर्तते । अन्वयः-ओत् निपात: प्रगृह्यम् । अर्थ:-ओकारान्तो निपात: प्रगृह्यसंज्ञको भवति । उदा०-आहो इति। उताहो इति।
आर्यभाषा-अर्थ-(ओत्) ओकारान्त (निपात:) निपात की (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है।
उदा०-आहो इति। उताहो इति। आहो। हां! उताहो। अथवा।
सिद्धि-(१) आहो इति। यहां 'आहो' ओकारान्त निपात की प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृति भाव से रहता है। 'एचोऽयवायाव:' (६।१।७८) से प्राप्त अव् आदेश नहीं होता है।
(२) अताहो इति । सब कार्य 'आहो इति' के समान है। सम्बुद्धि-ओकार:
(६) सम्बुद्धौ शाकल्यस्येतावनार्षे ।१६। प०वि०-सम्बुद्धौ ७१ शाकल्यस्य ६१ इतौ ७१ अनार्षे ७।१
स०-ऋषिणा प्रोक्तमिति आर्षम्, न आर्षम् अनार्षम्, तस्मिन् अनार्षे (नञ्तत्पुरुषः)।
अनु०-ओत्, प्रगृह्यम् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-सम्बुद्धौ ओत् प्रगृह्यं शाकल्यस्य अनार्षे इतौ।
अर्थ:-सम्बुद्धिनिमित्तको य ओकार: स प्रगृह्यसंज्ञको भवति, शाकल्यस्याचार्यस्य मतेन, अनार्षे (अवैदिके) इतिशब्दे परत:।
उदा०-वायो इति (शाकल्यमते) वायविति (पाणिनिमते)।
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