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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः आभ्यन्तर प्रयत्न-स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट, संवृत और विवृत भेद से चार प्रकार का होता है। उसे महर्षि दयानन्द प्रणीत पाणिनीय शिक्षा की व्याख्या 'वर्णोच्चारण शिक्षा से यथावत् समझ लेवें। सवर्णसंज्ञाप्रतिषेधः
(२) नाज्झलौ।१०। प०वि०-न अव्ययपदम्। अच्-हलौ १।२ स०-अच् च हल् च तौ-अज्झलौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-तुल्यास्यप्रयत्नम् अज्झलौ सवर्णं न। अर्थ:-तुलास्यप्रयत्नावपि अच्-हलौ परस्परं सवर्णसंज्ञको न भवतः । उदा०-दण्डहस्त: । दधिशीतम् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(तुलास्यप्रयत्नम्) तुल्य स्थान और तुल्य आभ्यन्तर प्रयत्नवाले (अच्-हलौ) अच् और हल् वर्णों की परस्पर (सवर्णम्) सवर्णसंज्ञा (न) नहीं होती है।
उदा०-दण्डहस्तः । दण्ड है हाथ में जिसके वह। दधि-शीतम् । ठण्डी दही।
सिद्धि-(१) दण्डहस्त: । यहां अ और ह का स्थान कण्ठ है। अ का आभ्यन्तर प्रयत्न विवृत और ह का आभ्यन्तर प्रयत्न ईषद् विवृत है। इस प्रकार अ और ह का स्थान
और प्रयत्न में सादृश्य है किन्तु 'अ' अच् और 'ह' हल है। अत: इनकी परस्पर सवर्ण संज्ञा नहीं होती है। सवर्ण संज्ञा न होने से अक: सवर्णे दीर्घ' (६।१।१०१) से सवर्ण दीर्घत्व नहीं होता है।
(२) दधिशीतम्-यहां इकार और शकार का स्थान तुल्य है और पूर्ववत् प्रयत्न की भी समानता है। यहां भी पूर्वोक्त कारण से सवर्ण संज्ञा नहीं होती है।
प्रगृह्यसंज्ञाप्रकरणम् ईदूदेदन्तं द्विवचनम्
___ (१) ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम् ।११। प०वि०-ईत्-ऊत्-एद् १।१ द्विवचनम् ११ प्रगृह्यम् ११ । स०-इत् च ऊत् च एत् च एतेषां समाहार:-ईदूदेद् (समाहारद्वन्तः)
अर्थ:-ईदन्तम्, ऊदन्तम्, एदन्तम् च द्विवचनं शब्दरूपं प्रगृह्यसंज्ञक भवति।
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