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पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
उदा०- (ईदन्तम्) अग्नी इति । (ऊदन्तम् ) वायू इति । ( एदन्तम् ) मा इति । पचेते इति ।
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आर्यभाषा-अर्थ- ( ईत्-उत्-एत् ) ईकारान्त, ऊकारान्त और एकारान्त ( द्विवचनम् ) द्विवचनान्त पद की (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है।
उदा०-1
- (ईकारान्त) अग्नी इति । (ऊकारान्त) वायू इति। (एकारान्त) माले इति,
पचेते इति ।
सिद्धि-(१) अग्नी इति । यहां अग्नी पद ईकारान्त द्विवचन है। इसकी प्रगृह्य संज्ञा होने से यह प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्' ( ६ । १ । १२५ ) से प्रकृतिभाव से रहता है। 'अकः सवर्णे दीर्घः' (६ । १ । १०१) से प्राप्त सवर्ण दीर्घ नहीं होता है।
(२) वायू इति। यहां वायू पद ऊकारान्त द्विवचन है। इसकी प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृति भाव से रहता है । 'इको यणचिं' (६ 1१1७७ ) से प्राप्त यण्- आदेश (व) नहीं होता है।
(३) माले इति। यहां माले पद एकारान्त द्विवचन है। इसकी प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृतिभाव से रहता है। 'एचोऽयवायाव:' ( ६ । १।७८) से प्राप्त अयादेश नहीं होता है।
अदसो मात्परमीदूदेत्
(२) अदसो मात् । १२ ।
प०वि० - अदसः ६ । १ मात् ५ । १ । अनु०- ईदूदेत् प्रगृह्यम् इत्यनुवर्तते । अन्वयः -अदसो मात् ईदूदेत् प्रगृह्यम् ।
अर्थ:-अदसो मकारात् परम् ईदूदेत् प्रगृह्यसंज्ञकं भवति ।
उदा०- ( ईत्) अमी अत्र । (ऊत् ) अमू अत्र । ( एत्) एकारस्य नास्त्युदाहरणम् ।
आर्यभाषा - अर्थ - (अदसः) अदस् शब्द के (मात्) म से परे (ईदूदेत्) ई, ऊ, ए की (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है।
उदा०- -(ई) अमी अत्र । (ऊ) अमू अत्र । (ए) ए का उदाहरण नहीं है।
सिद्धि - (१) अमी अत्र | यहां अदस् शब्द के मकार से उत्तर ई की प्रगृह्य संज्ञा होने से यह प्रगृह्या अचि नित्यम्' (६ | १ | ११५ ) से प्रकृति भाव से रहता है। 'इको यणचि (६।१/७७) से प्राप्त यण आदेश (यू) नहीं होता है।
(२) अमू अत्र | यहां सब कार्य 'अमी अत्र' के समान है।
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