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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा०- गमयति । वह भेजता है। गमयतः । वे दोनों भेजते हैं । गमयन्ति । वे सब
भेजते हैं
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सिद्धि-गमयति । इण्+ णिच् । गम् + इ । गाम् + इ । गम् + इ । गमि+लट् । गमि+शप्+ तिप् । गमि+अ+ति । गमे+अ+ति । गमयति ।
'इण् गतौं' (अदा०प०) यह धातु गत्यर्थक है। गति के ज्ञान, गमन और प्राप्ति ये तीन अर्थ होते हैं। यहां ज्ञान = -बोधन अर्थ से रहित इस धातु से हेतुमति च' (३ । १ । २६) णिच् प्रत्यय और इस आर्धधातुक विषय में इस सूत्र से 'इण्' के स्थान में 'गमि' आदेश होता है। गम् से णिच् प्रत्यय परे होने पर 'अत उपधाया:' (७/२/११६) से 'गम्' की उपधावृद्धि होती है। णिच् प्रत्यय परे रहने पर 'मितां हस्व:' से 'गाम्' की उपधा को ह्रस्व हो जाता है । 'घटादयो मित:' इस धातुपाठस्थ गणसूत्र से घटादि धातु मित् हैं, किन्तु गम् धातु 'जनीजृष्क्नुसुरजोऽमन्ताश्च' (धा०पा० गणसूत्र) से अमन्त होने से मित् है । णिजन्त गमि धातु से 'वर्तमाने लट्' (३ । २ । १२३) से लट् प्रत्यय है।
इण् (गम्) -
(१३) सनि च । ४७ ।
प०वि० - सनि ७ । १ च अव्ययपदम् ।
अनु० - आर्धधातुके, इणः, गमि:, अबोधने इति चानुवर्तते । अन्वयः - अबोधने इणो गमिः सनि चार्धधातुके ।
अर्थ:-अबोधनेऽर्थे वर्तमानस्य इण: स्थाने गमिरादेशो भवति, सनि चार्धधातुके विषये ।
उदा०-जिगमिषति । जिगमिषत: । जिगमिषन्ति ।
आर्यभाषा-अर्थ- (अबोधने) ज्ञान अर्थ से रहित ( इणः) इण् धातु के स्थान में (गमि:) गमि आदेश होता है ( सनि) सन् प्रत्यय सम्बन्धी (च) भी (आर्धधातुके) आर्धधातुक विषय में ।
उदा०-जिगमिषति । वह जाना चाहता है। जिगमिषत: । वे दोनों जाना चाहते हैं। जिगमिषन्ति । वे सब जाना चाहते हैं।
सिद्धि - जिगमिषति । इण्+सन् । गम्+स। गम्+गम्+स। ग+गम्+इट्+स। गि+गम्+इ+स । जि+गम्+इ+ष । जिगमिष+लट् । जिमिष+शप्+तिप् । जिगमिष+अ+ति । जिगमिषति ।
यहां ज्ञान अर्थ से रहित 'इण् गतौं' (अदा०प०) धातु से 'धातोः कर्मणः समानकर्तृकाकादिच्छायां वा' (३ 1१1७) से सन् प्रत्यय और इस आर्धधातुक विषय में
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