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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् हन् (वा वध)
(१०) आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम्।४४। प०वि०-आत्मनेपदेषु ७ ।३ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम्। अनु०-आर्धधातुके, हन:, वध, लुङि इति चानुवर्तते । अन्वयः-हनोऽन्यतरस्यां वध आत्मनेपदेषु लुङि आर्धधातुके।
अर्थ:-हन: स्थाने विकल्पेन वध-आदेशो भवति, आत्मनेपदेषु प्रत्ययेषु परत:, लुङि आर्धधातुके विषये।
उदा०-वध-आदेश:-आवधिष्ट । आवधिषाताम् । आवधिषत । न च वध-आदेश:-आहत । आहसाताम् । आहसत ।
आर्यभाषा-अर्थ-(हन:) हन् धातु के स्थान में (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (वध) वध आदेश होता है (आत्मनेपदेषु) आत्मनेपद प्रत्यय परे होने पर (लुडि) लुङ्लकार सम्बन्धी (आर्धधातुके) आर्धधातुक विषय में।
उदा०-वध-आदेश-आवधिष्ट । उसने आघात धक्का दिया। आवधिष्टाम् । उन दोनों ने धक्का दिया। आवधिषत। उन सब ने धक्का दिया। (२) वध आदेश नहीं-आहत । आहसाताम् । आहसत । अर्थ पूर्ववत् है।
सिद्धि-अवधिष्ट। आड्+हन्+लुङ् । आ+अट्+व+च्लि+लुङ् । आ+अ+व+ सिच्+त। आ+व+इट्+स्+त। आ+व+इ++ट । आवधिष्ट।
यहां हन् हिंसागत्योः' (अदा०प०) धातु से 'आडो यमहन:' (१।३।२८) से आङ्पूर्वक होने से आत्मनेपद और इस सूत्र से आत्मनेपद लुङ्लकारसम्बन्धी आर्धधातुक विषय में हन् के स्थान में वध आदेश होता है। 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७।२।३५) से सिच् को इट् आगम, 'आदेशप्रत्यययोः' (८।३।५९) से सिच् को षत्व और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से टुत्व-त को ट होता है।
(२) आहत । आङ्+हन्+लुङ्। आ+अट्+हन्+च्लि+लुङ् । आ+अ+हन्+सिच्+त। आ+ह+o+स्+त। आ+ह+o+त। आहत।
यहां हन् धातु के स्थान में विकल्प पक्ष में इस सूत्र से वध आदेश नहीं है। हन: सिच्' (१।२।१४) से सिच् प्रत्यय कित् होकर 'अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्डिति (६।४।३४) से अनुनासिक का लोप और 'हस्वादङ्गात्' (८।२।२७) से सिच् के सकार का लोप होता है।
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