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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (४) औपगवः । उपगु+अण्। औपगो+अ। औपगव+सु। औपगवः । यहां उपगु शब्द से अपत्य अर्थ में तस्यापत्यम्' (४।१।९२) से अण् प्रत्यय और तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से आदि वृद्धि होती है। यहां 'ओर्गुणः' (६।४।१४६) से उपगु के अन्त्य उकार को गुण होता है।
विशेष-आदेच् पद के मध्य में त्' किसलिये लगाया गया है ? आ++ऐच् । अष्टाध्यायी में अनेक स्थानों पर त्' लगाकर वर्णों का निर्देश किया गया है। उन वर्णों को तपर कहते हैं। यहां आ और ऐच के मध्य में त् लगाया गया है। इसलिये देहली-दीपक न्याय से आ और ऐच दोनों तपर हैं। जैसे घर की देहली पर रखा हुआ दीपक दोनों ओर अपना प्रकाश फैलाता है, वैसे यहां दोनों के मध्य में विद्यमान त् आ और ऐच दोनों को तपर करता है। त: परो यस्मात स तपरः, तादपि परस्तपरः । जिससे त् परे है उसे तपर कहते हैं और जो त् से परे है वह भी तपर कहाता है। अष्टाध्यायी में वर्णो को तपर करने का प्रयोजन यह है कि तपरस्तत्कालस्य' (१।१।७०) अर्थात् तपर वर्ण तत्काल के ग्राहक होते हैं। ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत जिस भी काल के वर्ण के साथ त् लगाया जाता है, वह उसी काल के उदात्त, अनुदात्त, स्वरित तथा निरनुनासिक और सानुनासिक वर्णो का ग्राहक होता है।
इस प्रकार तपर वर्ण अपने छ: प्रकार के स्वरूप का ग्रहण करता है, शेष का नहीं। अत: यहां छ: प्रकार के आकार, ऐकार और औकार की वृद्धि संज्ञा का विधान किया है। इसे निम्नलिखित अकार के १८ अठारह भेदों की रीति से यथावत् समझ लेवें :
स्वर हस्व दीर्घ प्लत
उदात्त
अ३
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२. अनुदात्त- अ
आ स्वरित
अ३ (निरनुनासिक) ४. उदात्त- अॅ* ५. अनुदात- अॅ आ स्वरित
अ (सानुनासिक) इकार आदि वर्गों के भी भेद इसी प्रकार से होते हैं। उन्हें महर्षि दयानन्दप्रणीत 'वर्णोच्चारण शिक्षा से समझ लेवें । ह्रस्व वर्ण की एक मात्रा, दीर्घ वर्ण की दो मात्रा और प्लुत वर्ण की तीन मात्राएं होती हैं। स्वस्थ मनुष्य के अंगूठे की नाड़ी की धड़कन से मात्रा काल की गणना की जाती है। एक धड़कन का एक मात्रा काल होता है।
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