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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
यहां 'तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च (२1१ 1५१) से समाहार अर्थ में द्विगु समास है । 'गोरतद्धितलुकि' (५/४/९२ ) से समासान्त टच् प्रत्यय है । 'द्विगुरेकवचनम्' (२/४/१) से एकवद्भाव होता है। इस सूत्र से समस्त पद नपुंसकलिङ्ग है। नपुंसकलिङ्ग में 'अतोऽम्' (७/१/२४) से 'सु' के स्थान में 'अम्' आदेश होता है।
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(२) पाणिपादम् । पाणि+औ+पाद+औ। पाणिपाद+सु। पाणिपाद+अम् । पाणिपादम् । यहां समाहार द्वन्द्व समास में 'द्वन्द्वश्च प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम् (२।४।२) सें एकवद् भाव होकर इस सूत्र से नपुंसकलिङ्ग होता है। नपुंसकलिङ्ग में 'अतोऽम्' (७ 1१/२४) से 'सु' के स्थान में 'अम्' आदेश होता है।
अव्ययीभावः
(२) अव्ययीभावश्च | १८ | प०वि० - अव्ययीभावः १ । १ च अव्ययपदम् । अनु० - 'नपुंसकम्' इत्यनुवर्तते ।
अन्वयः-अव्ययीभावश्च नपुंसकम् ।
अर्थ :- अव्ययीभावश्च समासो नपुंसकलिङ्गो भवति । उदा०-स्त्रीष्वधि इति अधिस्त्रि । गुरुकुलस्य समीपमिति उपगुरुकुलम्। आर्यभाषा-अर्थ- (अव्ययीभावः) अव्ययीभाव समास (च) भी (नपुंसकम्) नपुंसकलिङ्ग
होता है।
उदा० - स्त्रीष्वधि इति अधिस्त्रि । स्त्रियों के विषय में । गुरुकुलस्य समीपमिति उपगुरुकुलम् । गुरुकुल के समीप ।
सिद्धि - (१) अधिस्त्रि | अधि+सु+स्त्री+सुप् । अधिस्त्रि+सु । अधिस्त्रि ।
यहां अधि और स्त्री शब्द का 'अव्ययं विभक्ति०' (२ ।१ । ६ ) से सप्तमी विभक्ति के अर्थ में अव्ययीभाव समास है। इस सूत्र से समस्त पद नपुंसकलिङ्ग होता है । 'ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य' (१।२।४७ ) से नपुंसकलिङ्ग में स्त्री शब्द का ह्रस्व होता है। 'अव्ययीभावश्च' (१ । १ । ४०) से अव्ययीभाव समास अव्यय होता है अत: 'अव्ययादाप्सुपः' (२/४/८२ ) से 'सु' प्रत्यय का 'लुक्' हो जाता है।
(२) उपगुरुकुलम् । उप+सु+गुरुकुल+ङस् । उपगुरुकुल+सु। उपगुरुकुल+अम् । उपगुरुकुलम् ।
यहां उप और गुरुकुल शब्द का 'अव्ययं विभक्तिसमीप ० ' (२1१ 1६ ) से समीप अर्थ में अव्ययीभाव समास होता है । इस सूत्र से समस्तपद नपुंसकलिङ्ग होता है। 'अव्ययीभावश्च' (१ । १ । ४०) से अव्ययीभाव समास अव्यय होता है अत: 'अव्ययादाप्सुप:'
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