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________________ द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः ४३३ निप्रवहन्ति देवदत्तः । देवदत्त चोर को नीचे डालकर खूब मारता है। (३) नाट-चौरस्य नाटयति देवदत्तः। देवदत्त चोर का नाच नचाता है। (४) क्राथ-चौरस्य क्राथयति देवदत्तः । देवदत्त चोर का हनन करता है। (५) पिष्-चौरस्य पिनष्टि देवदत्तः । देवदत्त चोर की पिसाई करता है, उसे पीसता है। सिद्धि-चौरस्य जासयति देवदत्तः । यहां हिंसार्थक जासि धातु के शेष कर्म चौर में षष्ठी विभक्ति है। यहां हिंसा का अर्थ प्राणान्त करना ही नहीं अपितु किसी भी प्रकार से उसे पीड़ित करना है। ऐसे ही-चौरस्य निहन्ति देवदत्त:, आदि। कर्मणि षष्ठी __(6) व्यवहृपणोः समर्थयोः ।५७ । प०वि०-व्यवहृ-पणो: ६।२। समर्थयो: ६।२। स०-व्यवहृश्च पण च तौ व्यवहृपणौ, तयो:-व्यवहृपणो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। समोऽर्थो ययोस्तौ-समर्थो, तयो:-समर्थयो: (बहुव्रीहिः)। अनु०-षष्ठी शेषे कर्मणि इति चानुवर्तते। अन्वय:-समर्थयोर्व्यवहृपणो: शेषे कर्मणि षष्ठी। अर्थ:-समानार्थयोर्व्यवहृ-पणोर्धात्वो: शेषे कर्मणि कारके षष्ठी विभक्तिर्भवति। द्यूते क्रयविक्रयव्यवहारे च व्यवहृपणो: समानार्थत्वम् । उदा०-(१) व्यवहृ-(वि+अव+हृञ् हरणे भ्वा० उ०) शतस्य व्यवहरति देवदत्त: । सहस्रस्य व्यवहरति यज्ञदत्त: । (२) पण्-‘पण व्यवहारे स्तुतौ च' (भ्वा०आ०) शतस्य पणते देवदत्त: । सहस्रस्य पणते यज्ञदत्त: । ___आर्यभाषा-अर्थ- (समर्थयो:) समान अर्थवाली (व्यवहृपणोः) व्यवह और पण धातु के (शेषे) शेष (कमणि) कर्म कारक में (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति होती है। द्यूत (जूआ खेलना) और क्रय-विक्रय व्यवहार में व्यवह और पण धातु समानार्थक हैं। उदा०-(१) व्यवह-शतस्य व्यवहरति देवदत्तः। देवदत्त सौ रुपये का जुआ खेलता है अथवा सौ रुपये का क्रय-विक्रय करता है। सहस्रस्य व्यवहरति यज्ञदत्त:। यज्ञदत्त हजार रुपये का जुआ खेलता है अथवा हजार रुपये का क्रय-विक्रय करता है। (२) पण्-शतस्य पणते देवदत्त: । देवदत्त सौ रुपये का जुआ खेलता है अथवा क्रय-विक्रय करता है। सहस्रस्य पणते यज्ञदत्तः । यज्ञदत्त हजार रुपये का जूआ खेलता है अथवा क्रय-विक्रय करता है। सिद्धि-शतस्य व्यवहरति देवदत्तः। यहां द्यूतक्रीडा और क्रय-विक्रय अर्थ में विद्यमान व्यवह धातु के शेष कर्म 'शत' शब्द में षष्ठी विभक्ति है। ऐसे ही-शतस्य पणते देवदत्तः, इत्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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