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द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः
४२६ आर्यभाषा-अर्थ-(अविदर्थस्य) ज्ञान अर्थ से रहित (ज्ञ:) ज्ञा-धातु के (शेषे) शेष (करणे) करण कारक में (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति होती है।
उदा०-घतस्य जानीते देवदत्तः । देवदत्त घी के उपाय से भोजन में प्रवृत्त होता है। मधुनो जानीते यज्ञदत्तः । यज्ञदत्त मीठे के उपाय से भोजन में प्रवृत्त होता है।
सिद्धि-घृतस्य जानीते देवदत्त: । ज्ञा+लट् । ज्ञा+श्ना+त। ज्ञा+ना+त। ज्ञा+नी+ते। जानीते। यहां ज्ञा-धातु का विद-जानना अर्थ नहीं है, अपितु प्रवृत्त होना अर्थ है। अत: अविदर्थ ज्ञा-धातु के करण 'घृत' शब्द में षष्ठी विभक्ति है। जहां ज्ञा' धातु का जानना अर्थ होगा वहां ज्ञा' धातु के करण में कर्तकरणयोस्तृतीया' (२।३।२८) से तृतीया विभक्ति होगी। जैसे-स्वरेण पुत्रं जानाति देवदत्तः । देवदत्त आवाज से अपने पुत्र को जान लेता है। कर्मणि षष्ठी
(३) अधीगर्थदयेशां कर्मणि|५२। प०वि०-अधीगर्थ-दय-ईशाम् ६।३ कर्मणि ७।१।
स०-अधीक् (अधि+इक्) अर्थो येषां ते-अधीगाः , अधीगर्थाश्च दयश्च ईश् च ते-अधीगर्थदयेश:, तेषाम्-अधीगर्थदयेशाम् (बहुव्रीहिगर्भितेतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-षष्ठी शेषे इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अधीगर्थदयेशां शेषे कर्मणि षष्ठी।
अर्थ:-अधीगर्थ-दय-ईशां धातूनां शेषे कर्मणि कारके षष्ठी विभक्तिर्भवति।
उदा०-(१) अधीगा: (स्मरणार्थाः)-मातुरध्येति देवदत्त: । मातु: स्मरति देवदत्तः। (२) दय-घृतस्य दयते यज्ञदत्तः। (३) ईश्-मधुन ईष्टे ब्रह्मदत्तः। ___आर्यभाषा-अर्थ-(अधीगर्थदयेशाम्) अधीगर्थ-स्मरणार्थक, दय और ईश् धातु के (शेषे) शेष (कमणि) कर्म कारक में (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति होती है।
उदा०-(१) अधीगर्थ (स्मरणार्थक)-मातुरध्येति देवदत्त: । मातुः स्मरति देवदत्तः । देवदत्त माता सम्बन्धी लाड-प्यार को स्मरण करता है। घृतस्य दयते यज्ञदत्तः । यज्ञदत्त घृत-सम्बन्धी पदार्थों का दान करता है। ईश-मधुन ईष्टे ब्रह्मदत्तः। मीठे सम्बन्धी पदार्थों का स्वामी है ब्रह्मदत्त।
___ सिद्धि-मातुरध्येति देवदत्तः । यहां अध्येति' क्रिया का कर्म 'माता' है। यहां शेष कर्म होने से देवदत्त माता को याद नहीं करता है, अपितु माता-सम्बन्धी लाड-प्यार को
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