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द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः । में प्रथमा विभक्ति का विधान किया गया है। यहां हे देवदत्त ! में देवदत्त प्रातिपदिकार्थ से अतिरिक्त सम्बोधन अर्थ भी इसमें मिश्रित है, अत: पूर्व सूत्र से प्रथमा विभक्ति प्राप्त नहीं थी। इसलिये प्रकृत सूत्र से सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति का विधान किया गया है। ऐसे ही-हे देवदत्तौ ! हे देवदत्ताः । आमन्त्रित-संज्ञा
(३) साऽऽमन्त्रितम्।४८। प०वि०-सा ११ आमन्त्रितम् १।१ । अनु०-सम्बोधने' इत्यनुवर्तते । अन्वय:-सम्बोधने या प्रथमा साऽऽमन्त्रितम् । अर्थ:-सम्बोधने या प्रथमा सातदन्तं शब्दरूपमामन्त्रितसंज्ञकं भवति। उदा०-हे देवदत्त ! हे देवदत्तौ ! हे देवदत्ता: !
आर्यभाषा-अर्थ-(सम्बोधने) सम्बोधन में जो प्रथमा विभक्ति है (सा) तदन्त शब्द की (आमन्त्रितम्) आमन्त्रित संज्ञा होती है। ___ उदा०-हे देवदत्त ! हे देवदत्तौ ! हे देवदत्ता: ! अर्थ स्पष्ट है।
सिद्धि-हे देवदत्त ! यहां देवदत्त की आमन्त्रित संज्ञा होने से आमन्त्रितस्य च (६।१।१९२) से इसका आधुदात्त स्वर होता है। सम्बुद्धि-संज्ञा
(४) एकवचनं सम्बुद्धिः ।४६ | प०वि०-एकवचनम् १।१ सम्बुद्धि: ११ । अनु०-प्रथमा, आमन्त्रितमिति चानुवर्तते। अन्वय:-आमन्त्रितस्य प्रथमाया एकवचनं सम्बुद्धिः ।
अर्थ:-आमन्त्रितस्य प्रथमाया यद् एकवचनं तत् सम्बुद्धिसंज्ञकं भवति।
उदा०-हे देवदत्त ! हे अग्ने ! हे वायो !
आर्यभाषा-अर्थ-(आमन्त्रितम्) आमन्त्रित संज्ञावाली (प्रथमा) जो प्रथमा विभक्ति है, उसके (एकवचनम्) एकवचन की (सम्बुद्धि:) सम्बुद्धि संज्ञा होती है।
उदा०-हे देवदत्त ! हे आग्ने ! हे वायो ! अर्थ स्पष्ट है।
सिद्धि-(१) हे देवदत्त ! देवदत्त+सु। देवदत्त+0। देवदत्त। यहां 'एहस्वात् सम्बुद्धेः' (६।१ ।६९) से सम्बुद्धि-संज्ञक 'सु' प्रत्यय का लोप हो जाता है।
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