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________________ द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः ४१५ उदा०-(१) स्तोकम्-स्तोकेन मुक्तो देवदत्त: । स्तोकाद्' मुक्तो देवदत्तः। (२) अल्पम्-अल्पेन मुक्तो देवदत्त: । अल्पाद् मुक्तो देवदत्त: । (३) कृच्छ्रम्-कृच्छ्रेण मुक्तो देवदत्त: । कृच्छ्राद् मुक्तो देवदत्त: । (४) कतिपयम्-कतिपयेन मुक्तो देवदत्तः। कतिपयाद् मुक्तो देवदत्तः। आर्यभाषा-अर्थ-(असत्त्ववचनस्य) अद्रव्यवाची (स्तोक०कतिपयस्य) स्तोक, अल्प, कृच्छ्र और कतिपय शब्दों से (करणे) करण कारक में (तृतीया) तृतीया (च) और पञ्चमी विभक्ति होती है। उदा०-(१) स्तोक-स्तोकेन मुक्तो देवदत्तः । देवदत्त थोड़े से प्रयास से बन्धन से मुक्त होगया। स्तोकाद् मुक्तो देवदत्तः । अर्थ पूर्ववत् है। (२) अल्प-अल्पेन मुक्तो देवदत्त: । अर्थ पूर्ववत् है। अल्पाद् मुक्तो देवदत्तः । अर्थ पूर्ववत् है। (३) कृच्छ्र-कृच्छ्रेण मुक्तो देवदत्त: । देवदत्त कठिनाई के बन्धन से मुक्त हुआ। कृच्छ्राद् मुक्तो देवदत्त: । अर्थ पूर्ववत् है। (४) कतिपय-कतिपयेन मुक्तो देवदत्तः । देवदत्त कुछ ही प्रयास से बन्धन से मुक्त होगया। कतिपयाद् मुक्तो देवदत्तः । अर्थ पूर्ववत् है। सिद्धि-स्तोकेन मुक्तो देवदत्त:। यहां स्तोक शब्द से करण कारक में तृतीया विभक्ति है। असत्त्ववचन-अद्रव्यवचन का कथन इसलिये किया गया है कि यहां द्रव्यवाची स्तोक शब्द में तृतीया और पञ्चमी विभक्ति न हों-स्तोकेन विषेण हतो यज्ञदत्तः । यज्ञदत्त थोड़े से जहर से मर गया। करण में कर्तृकरणयोस्तृतीया' (२।३।१८) से तृतीया विभक्ति सिद्ध ही है, यहां करण में पञ्चमी विभक्ति का विशेष विधान किया गया है-स्तोकाद् मुक्तो देवदत्तः, इत्यादि। षष्ठी पञ्चमी च (७) दूरान्तिकाथैः षष्ठ्यन्यतरस्याम् ।३४। प०वि०-दूर-अन्तिकाथै: ३।३ षष्ठी १।१ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम्। स०-दूरं च अन्तिकं च ते-दूरान्तिके, दूरान्तिके अर्थो येषां ते दूरान्तिकार्थाः, तै:-दूरान्तिकाथै: (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहिः)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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