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________________ ३०५ द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः अनु०-'सुप् सुपा सह, पञ्चम्या अव्ययीभावः' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-मर्यादाभिविध्योराङ् सुप् पञ्चम्या सुपा सह विभाषा समासोऽव्ययीभावः। अर्थ:-मर्यादायामभिविधौ चार्थे वर्तमानं आङ् इति सुबन्तं पञ्चम्यन्तेन समर्थेन सुबन्तेन सह विकल्पेन समस्यते, समासश्चाव्ययीभावो भवति । उदा०- (मर्यादायाम्) आपाटलिपुत्रं वृष्टो देव: । आ पाटलिपुत्रात् वृष्टो देव: । (अभिविधौ) आकुमारं यश: पाणिनेः । आ कुमारेभ्यो यश: पाणिनेः । मर्यादा विना तेन भवति, अभिविधिश्च सह तेन भवति। आर्यभाषा-अर्थ- (मर्यादाभिविध्यो:) मर्यादा और अभिविधि अर्थ में वर्तमान (आङ्) आङ् इस (सुम्) सुबन्त का (पञ्चम्या) पञ्चम्यन्त (सुपा) समर्थ सुबन्त के (सह) साथ (समास:) समास होता है और उसकी (अव्ययीभाव:) अव्ययीभाव संज्ञा होती है। उदा०-(मर्यादा) आपाटलिपुत्रं वृष्टो देवः । पाटलिपुत्र (पटना) तक बादल बरसा। यहां अव्ययीभाव समास होगया। आ पाटलिपुत्रात् वृष्टो देवः । अर्थ पूर्ववत् है। यहां अव्ययीभाव समास नहीं हुआ। यहां आङ् शब्द के योग में 'पञ्चम्यपाङ्परिभि:' (२।३।१०) से पञ्चमी विभक्ति होती है। (अभिविधि) आकुमारं यश: पाणिनेः । मुनिवर पाणिनि का यश कुमारों तक फैला हुआ है। यहां अव्ययीभाव समास होगया। आ कुमारेभ्यो यश: पाणिनेः । अर्थ पूर्ववत् है। यहां आङ् शब्द के योग में पूर्ववत् पञ्चमी विभक्ति होती है। विशेष-मर्यादा और अभिविधि में अन्तर यह है कि मर्यादा जिस नगर आदि से बतलाई जाती है उसे छोड़कर होती है और अभिविधि उस नगर आदि को साथ लेकर कही जाती है। अभिप्रती (१०) लक्षणेनाभिप्रती आभिमुख्ये।१४। प०वि०-लक्षणेन ३१ अभि-प्रती १।२ आभिमुख्ये ७१। स०-अभिश्च प्रतिश्च तौ-अभिप्रती (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अभिमुखस्य भाव आभिमुख्यम्, तस्मिन्-आभिमुख्ये (तद्धितवृत्ति:)। अनु०-'सुप् सह सुपा अव्ययीभावः' इत्यनुवर्तते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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