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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(अप:) अपत्रिगर्तं वृष्टो देव: । अप त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । (परि) परित्रिगर्तं वृष्टो देवः । (बहि:) बहिर्गामम् । बहिर्गामात् । (अञ्चु) प्राग्ग्रामम्। प्राग् ग्रामात्।
____ आर्यभाषा-अर्थ-(अपपरिबहिरञ्चव:) अप, परि, बहिर् और अञ्चु इन (सुप) सुबन्तों का (पञ्चम्या) पञ्चम्यन्त (सुप्) सुबन्त के (सह) साथ (समासः) समास होता है और उसकी (अव्ययीभाव:) अव्ययीभाव संज्ञा होती है।
उदा०-(अप) अपत्रिगर्तं वृष्टो देवः । त्रिगर्त (जालन्धर) को छोड़कर बादल बरसा। यहां अव्ययीभाव समास होगया। अप त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । अर्थ पूर्ववत् है। यहां अव्ययीभाव समास नहीं हुआ। अत: 'पञ्चम्यपाङ्परिभिः' (२।३।१०) से 'अप' शब्द के योग में पञ्चमी विभक्ति होगई। (परि) परित्रगर्तं वृष्टो देवः । त्रिगर्त को छोड़कर बादल बरसा। परि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । अर्थ पूर्ववत् है। (बहि:) बहिर्गामम् । ग्राम से बाहर। यहां अव्ययीभाव समास होगया। बहिर्गामात् । अर्थ पूर्ववत् है। इसी ज्ञापक के बहिर् शब्द के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है। (अञ्चु) प्रागग्रामम् । ग्राम से पूर्व में। यहां अव्ययीभाव समास होगया। प्राग् ग्रामात् । अर्थ पूर्ववत् है। यहां अव्ययीभाव समास नहीं हुआ। यहां 'अन्यारादितर०' (२।३।२९) से 'अञ्चु' के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है।
सिद्धि-(१) अपत्रिगर्तम् । अप+सु+त्रिगर्त+भ्यस् । अपत्रिगर्त+सु । अपत्रिगर्त+अम्। अपत्रिगर्तम्।
___यहां 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो:' से सुप् विभक्ति का लुक और नाव्ययीभावाद०' (२।४।८३) से 'सु' को अम्' आदेश होता है।
(२) प्रागग्रामम् । प्र+अञ्चु+क्विन्। प्र+अञ्च्+वि। प्र+अच्+0। प्राच्+सु। प्राक्+० । प्राक्+सु+ग्राम+ डसि । प्राग्ग्राम+सु। प्राग्गाम+अम् । प्राग्ग्रामम्।
यहां प्र उपसर्गपूर्वक 'अञ्च गतौ' धातु से ऋत्विग्दधक' (३।२।५९) से क्विन् प्रत्यय, अनिदितां हल उपधाया: क्डिति (६।४।२४) से अनुनासिक का लोप
और क्विन् प्रत्ययस्य कुः' (८।२।६२) से कुत्व होता है। इस प्रकार यहां 'अञ्चु' कहने से 'प्राक्' शब्द का ग्रहण किया गया है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
आङ
(६) आङ् मर्यादाभिविध्योः ।१३। प०वि०-आङ् १।१ मर्यादा-अभिविध्यो: ७१।
स०-मर्यादा च अभिविधिश्च तौ-मर्यादाभिविधी, तयो:-मर्यादाभिविध्यो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
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