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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् प्रयोग होने पर तथा प्रयोग न होने पर भी धातु से (मध्यम:) मध्यम पुरुष संज्ञक प्रत्यय होता है।
उदा०-(स्थानी का प्रयोग होने पर) त्वं पचसि । तू पकाता है। युवां पचथ: । तुम दोनों पकाते हो। यूयं पचथ । तुम सब पकाते हो। (स्थानी का प्रयोग न होने पर) पचसि। तू पकाता है। पचथः । तुम दोनों पकाते हो। पचथ । तुम सब पकाते हो।
सिद्धि-(१) त्वं पचसि । पच्+लट् । पच्+शप्+सिप । पच+अ+सि। पचसि । यहां स्थानी युष्मद् शब्द के उपपद होने पर 'डुपचष् पाके' (भ्वा० उ०) धातु से 'लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में मध्यम पुरुष संज्ञक सिप' आदेश होता है।
(२) समानाधिकरण' का कथन इसलिये है कि त्वम्' युष्मद् का एकवचन है इसलिये उसके साथ 'सिप' एकवचन का प्रत्यय ही रखा जाये। ऐसा न हो कि एकवचन युष्मद् के साथ द्विवचन अथवा बहुवचन का प्रत्यय रख दिया जाये। यह समानाधिकरण नहीं, अपितु व्यधिकरण हो जायेगा।
(३) स्थानी युष्मद् शब्द का प्रयोग न होने पर भी उसकी विवक्षा में धातु से मध्यम पुरुष संज्ञक प्रत्यय होता है। उसका अर्थ भी वही समझा जाता है, पचसि-तू पकाता है। प्रहासे मध्यपुरुष:
प्रहासे च मन्योपपदे मन्यतेरुत्तम एकवच्च ।१०६ ।
प०वि०-प्रहासे ७१ च अव्ययपदम्, मन्य-उपपदे ७।१ मन्यते: ५।१ उत्तम: ११ । एकवत् अव्ययपदम्, च अव्ययपदम् ।
स०-मन्य उपपदे यस्य स मन्योपपद:, तस्मिन्-मन्योपपदे। (बहुव्रीहिः)।
अनु०-'युष्मद्युपपदे समानाधिकरणे स्थानिन्यपि मध्यम:' इत्यनुवर्तत। - अन्वयः-प्रहासे च युष्मद्युपपदे समानाधिकरणे स्थानिन्यपि मन्योपपदे धातोर्मध्यम:, मन्यतेरुत्तम एकवच्च।
अर्थ:-प्रहासे च गम्यमाने युष्मत्-शब्दे उपपदे समानाभिधेये सति स्थानिनि प्रयुज्यमानेऽप्रयुज्यमानेऽपि मन्य-उपपदाद् धातेमध्यम: पुरुषो भवति, मन्यतेश्च धातोरुत्तम: पुरुषो भवति, स च एकवद् भवति ।
उदा०-कश्चित् कञ्चित् प्रहसन् प्राह-अयि मित्र ! एहि त्वं मन्ये-'अहम् ओदनं भोक्ष्यसे' इति, नहि भोक्ष्यसे, भुक्त: सोऽतिथिभिः। स्थानिनि
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