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प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः गतीनां व्यवहितप्रयोगः
(२३) व्यवहिताश्च ८२। प०वि०-व्यवहिता: १।३ च अव्ययपदम् । अनु०-ते, छन्दसि धातो:' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-ते गति उपसर्गा निपाताश्छन्दसि व्यवहिताश्च ।
अर्थ:-ते गतिसंज्ञका उपसर्गसंज्ञकाश्च निपाताश्छन्दसि वैदिकभाषायां धातोर्व्यवहिता अपि भवन्ति ।
उदा०-आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभि: (ऋ० ३।४५ १)। आयाहि (ऋ० ३।४३।२)।
आर्यभाषा-अर्थ-ति) उन गति संज्ञावाले और उपसर्ग संज्ञावाले निपातों का (छन्दसि) वैदिकभाषा में (धातो:) धातु से (व्यवहिता:) अन्य शब्दों के व्यवधान में भी प्रयोग होता है।
___ उदा०-आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः (ऋ० ३।४५।१)। आयाहि (ऋ० ३।४३।२)। हे इन्द्र ! तुम स्तुति के योग्य, मयूर के समान कोमल रोमवाले घोड़ों से यहां आओ।
यहां 'आ' उपसर्ग और याहि' धातु का 'मन्द्रैः' आदि शब्दों के व्यवधान में भी प्रयोग किया गया है। यहां संज्ञा-सम्बन्धी कोई प्रयोजन नहीं है, केवल क्रिया के साथ योग करना ही प्रयोजन है।
कर्मप्रवचनीयसंज्ञाप्रकरणम् अधिकारः
(१) कर्मवचनीयाः ।८३। प०वि०-कर्मवचनीया: १।३।
अर्थ:-'कर्मवचनीया:' इत्यधिकारोऽयम् ‘विभाषा कृत्रि' (१।४।९७) इति यावत्।
आर्यभाषा-अर्थ-(कर्मप्रवचनीयाः) इससे आगे कर्मप्रवचनीया:' का विभाषा कृजि (१।४।९०) तक अधिकार है। अब “कर्मप्रवचनीय' संज्ञा का विधान किया
जायेगा।
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