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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
स्वरूप को प्रस्तुत करना आपके जीवन का परम लक्ष्य है ।
आज भी आप ८७ वर्ष की आयु में आर्षपाठ विधि, साहित्य - प्रकाशन, ऐतिहासिक - अनुसन्धान, आयुर्वेदिक चिकित्सा, शराबबन्दी आन्दोलन, वेदप्रचार आदि के माध्यम से संसार के उपकार में लगे हुए हैं।
८. पं० विश्वप्रिय शास्त्री
जन्म, शिक्षा
आपका जन्म २१ अप्रैल १९२१ में जिला बिजनौर के लेदरपुर ग्राम में हुआ था । आपके पिता श्री फतेहसिंह ग्राम के मुखिया थे । आप अपने चार बहिन-भाइयों में से सब से छोटे थे। आपके छोटे भाई खेमसिंह ग्राम के मुखिया रहे हैं। आपकी बहिन बसन्ती तथा पूज्या माता जी का आपकी बाल्यावस्था में ही स्वर्गवास होगया था । अतः आप मातृ-स्नेह से वञ्चित रहे। ग्राम में विद्यालय नहीं था अतः नदी पार करके समीपवर्ती शेरकोट उप-नगर में पढ़ने जाना पड़ता था । आप बुद्धिमत्ता के कारण कक्षा में सर्वप्रथम रहते अतः आपको छात्रवृत्ति मिलती थी और फीस भी मुआफ थी । आप १९३७ में विद्यालय से मिडल परीक्षा उत्तीर्ण की । सन् १९३८ से १९४५ तक आचार्य राजेन्द्रनाथ शास्त्री के चरणों में बैठकर दयानन्द वेद विद्यालय में अष्टाध्यायी महाभाष्य आदि आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया। तत्पश्चात् आपने गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर से विद्यारत्न, एजूकेशन बोर्ड उत्तरप्रदेश से हाईस्कूल, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से साहित्यरत्न, पंजाब विश्वविद्यालय से शास्त्री और दरभंगा विश्वविद्यालय से आचार्य परीक्षा योग्यतापूर्वक उत्तीर्ण की।
आप श्रद्धेय आचार्य भगवान्देव जी के दयानन्द वेदविद्यालय दिल्ली के सहपाठी थे । आपको सम्पूर्ण पाणिनीय अष्टाध्यायी एवं व्याकरणशास्त्र कण्ठस्थ था । आप संस्कृत भाषाके उद्भट विद्वान् थे । आपकी धर्मपत्नी श्रीमती जयावती स्नातिका गुरुकुल सासनी संस्कृत भाषा की विदुषी है। आपकी पुत्री डॉ० सुवीरा और पुत्र वेदप्रिय, ब्रह्मप्रिय, सर्वप्रिय, आनन्दप्रिय और विजयप्रिय संस्कृतभाषा तथा भारतीय संस्कृति के अनुरागी हैं।
गुरुकुल के उपाचार्य
गुरुकुल झज्जर के आचार्य एवं मुख्याधिष्ठाता ब्रह्म० भगवान्देव जी के आग्रह पर आपने दिनांक १२ नवम्बर १९४५ को गुरुकुल के उपाचार्य पद को सुशोभित किया । आपके आगमन से पूर्व आचार्य भगवान्देव जी ही ब्रह्मचारियों को पाणिनीय शिक्षा अष्टाध्यायी, काशिका तथा आर्य - सिद्धान्त पढ़ाते रहे । गुरुकुल के लिए अन्न-धन संग्रह का कार्य भी अत्यन्त आवश्यक था । अतः आचार्य भगवान्देव जी को उक्त आवश्यक कार्य में अति व्यस्त रहने के कारण अध्यापन कार्य के लिए समय नहीं मिलता था। पं० विश्वप्रिय शास्त्री के उपाचार्य पद का कार्यभार सम्भाल लेने पर आचार्य भगवान्देव जी
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