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प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
२६५ सिद्धि-(१) तिरस्कृत्य। यहां 'तिरसोऽन्यतरस्याम्' (८।३।४२) से 'तिरः' शब्द के विसर्जनीय को विकल्प से सकार आदेश होता है। जहां सकार आदेश नहीं होता वहां-तिर:कृत्य।
(२) तिरस्कृत्वा । जहां तिरः' शब्द की गतिसंज्ञा नहीं होती वहां कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) से गति समास भी नहीं होता। समास के न होने से 'समासेऽनजपूर्वे क्त्वो ल्यप् (७।१।३७) से क्त्वा प्रत्यय को ल्यप् आदेश भी नहीं होता है। यहां भी तिरसोऽन्यतरस्याम्' (८।३।४२) से तिर: शब्द के विसर्जनीय को विकल्प से सकार आदेश होता है। जहां सकार आदेश नहीं होता वहां-तिर:कृत्वा रूप बनता है। उपाजे-अन्वाजे
(१४) उपाजेऽन्वाजे |७३। प०वि०-उपाजे अव्ययपदम् । अन्वाजे अव्ययपदम् । अनु०-'विभाषा कृजि गतिः' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-उपाजेऽन्वाजे निपातौ कृषि विभाषा गतिः । अर्थ:-उपाजेऽन्वाजे निपातौ कृश्योगे विकल्पेन गतिसंज्ञकौ भवतः ।
उदा०-(उपाजे) उपाजेकृत्य । उपाजे कृत्वा । (अन्वाजे) अन्वाजे कृत्य । अन्वाजे कृत्वा। __उपाजेऽन्वाजे शब्दौ विभक्तिप्रतिरूपकौ निपातौ दुर्बलस्य सामर्थ्याऽऽधाने वर्तेते।
आर्यभाषा-अर्थ-(उपाजेऽन्वाजे) उपाजे और अन्वाजे निपात की (कृषि) कृञ् धातु के योग में (विभाषा) विकल्प से (गति:) गति संज्ञा होती है।
उदा०-(उपाजे) उपाजेकृत्य । उपाजे कृत्वा । दुर्बल की सहायता करके। (अन्वाजे) अन्वाजेकृत्य । अन्वाजे कृत्वा । दुर्बल की सहायता करके।
सिद्धि-(१) उपाजेकृत्य । यहां उपाजे' शब्द की गति संज्ञा होने से कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) से गति समास होता है। समास होने से 'समासेऽनपूर्वे क्त्वो ल्यप् (७।१।३७) से क्त्वा' प्रत्यय के स्थान में ल्यप्’ आदेश हो जाता है। पक्ष में जहां उपाजे' शब्द की गति संज्ञा नहीं होता वहां समास नहीं होता है। समास न होने से पूर्ववत् क्त्वा' प्रत्यय को ल्यप्' आदेश भी नहीं होता है-उपाजे कृत्वा । इसी प्रकार-अन्वाजे कृत्य । आगामी उदाहरणों में भी ऐसा ही समझें।
विशेष-उपाजे और अन्वाजे ये दोनों निपात विभक्ति प्रतिरूपक हैं। ये दोनों दुर्बल की सहायता करने अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
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