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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) ऊरीकृतम् । ऊरी+कृतम्। ऊरीकृतम्। यहां ऊरी शब्द की गतिसंज्ञा होने से कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) से गति-समास तथा गतिरनन्तरः' (६।२।४) से गतिसंज्ञक पूर्वपद उरी शब्द प्रकृति स्वर से रहता है। उरी शब्द का निपाता आधुदात्ता:' (फिट ४११२) से आधुदात्त स्वर है।
(३) यद् उरीकरोति। उरी+करोति-ऊरीकरोति।
यहां उरी शब्द की गति संज्ञा होने से कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) से गति-समास होता है। तिङ्ङतिङः' (८।१।२८) से करोति' तिङन्त पद को अनुदात्त स्वर मिलता है, किन्तु निपातैर्यद्यदि०' (८1१।३०) से उसका निषेध होने पर, तिप के पित होने से 'अनुदात्तौ सुपितौं' (३।१।४) से अनुदात्त स्वर होता है। यहां विकरण प्रत्यय उ' का आधुदात्तश्च (३।१।३) आधुदात्त प्रत्यय स्वर और 'धातोः' (६।१।१६२) से कृ धातु का शेष अनुदात्त स्वर होता है। तिङि चोदात्तवति (८1१।७१) से उरी' शब्द का अनुदात्त स्वर हो जाता है। उरीकरोति। इस गति संज्ञा प्रकरण में यह प्रयोजन सर्वत्र समझें। इसी प्रकार-उररीकृत्य। उररीकृतम् । यद् उररीकरोति। ऊरी और उररी दोनों शब्द स्वीकार करने अर्थ में हैं।
(४) शुक्लीकृत्य । शुक्ल+च्चि। शुक्ली+वि। शुक्ली।
यहां शुक्ल' शब्द से 'अभूततद्भावे कृभ्वस्तियोगे सम्पद्यकर्तरि चिः' (५।४।५०) से च्वि' प्रत्यय करने पर अस्य च्वौ' (७।४।३२) से शुक्ल के 'अ' को ईकारादेश होता है। वरपृक्तस्य' (६।१।६७) से वि' का लोप हो जाता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(५) पटपटाकृत्य । पटत्+डाच् । पटत्+पटत्+आ। पट+पट्+आ। पटपटा।
यहां पटत्' शब्द से अव्यक्तानुकरणाद् व्यजवरार्धादनितौ डाच् (८१२) से 'डाच्' प्रत्यय 'डाचि द्वे भवत:' (वा० ८1१1१२) से पटत' शब्द को द्वित्व, तस्य परमानेडितम्' (८।१।२) से द्वितीया 'पटत्' शब्द की आमेडित संज्ञा नित्यमामेडिते डाचि' (महा०६।१।९६) से प्रथम पटत्' शब्द के त्' का पररूप आदेश होता है। ट:' (६।४।१४३) से डाच् प्रत्यय के परे ‘पटत्' शब्द के टि-भाग 'अत्' का लोप हो जाता है। पटपटा। शेषकार्य पूर्ववत् है। अनुकरणम् (खाट)
(३) अनुकरणं चानितिपरम् ।६२। प०वि०-अनुकरणम् ११ च अव्ययपदम् । अनिति-परम् ११ ।
स०-इति: परो यस्मात् तत्-इतिपरम्, न इति परम् इति अनितिपरम् । (बहुव्रीहिगर्भिततेतरेतरद्वन्द्वः) ।
अनु०-'क्रियायोगे गति:' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अनितिपरमनुकरणं निपात: क्रियायोगे गति: ।
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