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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम् आत्मानन्द सरस्वती) से योगदर्शन, यौगिक क्रिया तथा आयुर्वेद आदि की शिक्षा प्राप्त की। तत्पश्चात् अपने जन्म-स्थान नरेला में “विद्यार्थी - आश्रम” की स्थापना करके अष्टाध्यायी आदि 'आर्षग्रन्थों के पठन-पाठन यज्ञ का शुभारम्भ कर दिया । २४ गुरुकुल झज्जर के आचार्य झज्जर निवासी पं० विश्वम्भरदत्त ने १३८ बीघा भूमि में स्वामी श्रद्धानन्द के कमकमलों से आधारशिला रखवाकर १६ मई १९१५ को गुरुकुल झज्जर की स्थापना की । गुरुकुल की रात-दिन चिन्ता तथा साथियों के विश्वासघात से निराश होकर आप गुरुकुल छोड़कर हरद्वार की ओर चले गए। मुजफ्फरनगर के निकट रतेरा नामक ग्राम में आपका स्वर्गवास होगया । आपके स्वर्गवास के पश्चात् गुरुकुल के सभी सहयोगी निराश होगए और गुरुकुल बन्द होगया । अब किसी को आशा नहीं रही कि यहां गुरुकुल चल सकेगा । आर्यसमाज की विभूति स्वामी ब्रह्मानन्द जी तथा स्वामी परमानन्द जी महाराज ने दिनांक २ मार्च १९२० ई० को गुरुकुल का पुन: संचालन करने का कार्य अपने हाथों में लिया । इन दोनों महापुरुषों ने लगभग १६ वर्ष तक इस गुरुकुल का संचालन किया । स्वामी आत्मानन्द जी उन दिनों सह-अधिष्ठाता के पद पर सेवा करते रहे । दौर्भाग्य से सन् १९४० ई० में गुरुकुल के मुख्याधिष्ठाता स्वामी परमानन्द जी का स्वर्गवास होगया। स्वामी ब्रह्मानन्द जी अतिवृद्ध होगए थे । पुनरपि वे यथा तथा गुरुकुल को चलाते रहे । इस प्रकार गुरुकुल पर फिर निराशा के बादल छागए । नवजीवन का संचार आर्यजगत् के प्रसिद्ध विद्वान् पं० जगदेवसिंह सिद्धान्ती बरहाणा (रोहतक) तथा श्री छोटूराम राठी खरहर (रोहतक) के आग्रह पर ब्रह्मचारी भगवान्देव जी ने २२ सितम्बर १९४२ ई० को गुरुकुल का आचार्य तथा मुख्याधिष्ठाता पद सम्भाल लिया । आपने महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में प्रतिपादित गुरुकुल शिक्षा पद्धति के अनुसार इस संस्था को एक आदर्श गुरुकुल के रूप में संचालन का दृढ़ निश्चय किया । आपकी प्रार्थना पर आपके ही बाल्यकाल के शिक्षक श्री मा० धर्मसिंह झिंझोली (सोनीपत) ने गुरुकुल के संरक्षक एवं अधिष्ठाता पद का कार्यभार ३ अक्तूबर १९४५ ई० को ग्रहण कर लिया। गुरुकुल वेदविद्यालय गोतमनगर दिल्ली के आपके ही सहपाठी पं० विश्वप्रिय शास्त्री ने १२ नवम्बर १९४५ को गुरुकुल के उपाचार्य पद को सुशोभित किया । श्री फतहसिंह जी रैय्या (रोहतक) सन् १९४६ के उत्तरार्ध में गुरुकुल के अन्न भण्डार, गोशाला तथा पाकशाला आदि कार्यों के संचालन में जुट गये। इसलिए आप आज भी 'भण्डारी' उपनाम से प्रसिद्ध हैं । इस प्रकार इस त्रि-विभूति की सेवा से गुरुकुल पुनः सुचारु रूप से चलने लगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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