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प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः आर्यभाषा-अर्थ-(अधिशीस्थासाम्) अधि उपसर्ग से परे शीङ्, स्था और आस् धातु के प्रयोग में (आधारः) जो आधार (कारकम्) कारक है, (कर्म) उसकी कर्म संज्ञा होती है।
उदा०-(अधिशी) देवदत्तो ग्राममधिशेते। देवदत्त ग्राम में अधिकारपूर्वक सोता है। (अधिस्था) देवदत्तो ग्राममधितिष्ठति। देवदत्त ग्राम में अधिष्ठाता है। (अध्यास्) देवदत्ते पर्वतमध्यास्ते। देवदत्त पर्वत पर अधिकारपूर्वक बैठता है।
सिद्धि-देवदत्तो ग्रामधिशेते। यहां अधि उपसर्गपूर्वक शेते' 'शी स्वप्न' (अ०आ०) धातु के प्रयोग में 'ग्राम:' आधार है, अत: उस कारक की कर्म संज्ञा होती है। इसलिये उसमें कर्मणि द्वितीया' (२।३।२) से द्वितीया विभक्ति हो जाती है। इसी प्रकार-देवदत्तो ग्राममधितिष्ठति । ष्ठा गतिनिवृत्तौ' (भ्वा०प०) देवदत्त: पर्वतमध्यास्ते। आस् उपवेशने (अ०आ०)।
विशेष-पूर्व सूत्र से अधिकरण संज्ञा प्राप्त थी। इस सूत्र से यहां कर्म संज्ञा का विधान किया गया है। कर्मसंज्ञा
(३) अभिनिविशश्च ।४७। प०वि०-अभि-नि-विश: ६।१ च अव्ययपदम् ।
स०-अभिश्च निश्च तौ-अभिनी, ताभ्याम्-अभिनिभ्याम् । अभिनिभ्यां विश् इति, अभिनिविश्, तस्मात्-अभिनिविश: (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितपञ्चमीतत्पुरुष:)।
अनु०-'आधार, कर्म' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अभिनिविशश्चाधार: कारकं कर्म ।
अर्थ:-अभिनिभ्यां परस्य विश्-धातो: प्रयोगे य आधारः, तत् कारक कर्मसंज्ञकं भवति ।
उदा०-देवदत्तो ग्राममभिनिविशते। पूर्वेणाधिकरणसंज्ञायां प्राप्तायां कर्मसंज्ञा विधीयते।
___ आर्यभाषा-अर्थ-(अभिनिविश:) अभि और नि उपसर्ग से परे विश' धातु के प्रयोग में (च) भी (आधार:) जो आधार है (कारकम्) उस कारक की (कर्म) कर्म संज्ञा होती है।
उदा०-देवदत्तो ग्राममभिनिविशते । देवदत्त ग्राम के सम्मुख प्रवेश करता है। सिद्धि-देवदत्तो ग्राममभिनिविशते। यहां अभि और नि उपसर्गपूर्वक विश्' धातु
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