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वा संप्रदानसंज्ञा
(३) परिक्रयणे सम्प्रदानमन्यतरस्याम् । ४४ ।
प०वि० - परिक्रयणे
अव्ययम् ७।१।
प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
२४३
७ ।१ सम्प्रदानम् १।१ अन्यतरस्याम्
अनु० - 'साधकतमम्' इत्यनुवर्तते ।
अन्वयः - परिक्रयणे साधकतमं कारकमन्यतरस्यां सम्प्रदानम्। अर्थ: - परिक्रयणेऽर्थे वर्तमानं यत् साधकतमं कारकं तद् विकल्पेन सम्प्रदानसंज्ञकं भवति, पक्षे करणसंज्ञकम् ।
उदा०- (सम्प्रदानम्) त्वं शताय परिक्रीतोऽनुब्रूहि । (करणम्) त्वं शतेन परिक्रीतोऽनुब्रूहि । त्वं सहस्रेण परिक्रीतोऽनुब्रूहि ।
परिक्रयणम् = नियतकालं वेतनादिना स्वीकरणम्, नाऽत्यन्तिकः क्रय
एव ।
आर्यभाषा - अर्थ - (परिक्रयणे ) किसी व्यक्ति को नियत समय तक वेतन आदि के द्वारा अपनाने अर्थ में वर्तमान (साधकतम् ) जो अत्यन्त साधक ( कारकम् ) कारक है, उसकी (अन्यतरस्याम्) विकल्प से ( सम्प्रदानम् ) सम्प्रदान संज्ञा होती है, पक्ष में करण संज्ञा भी होती है।
उदा०
- (सम्प्रदान) त्वं शताय परिक्रीतोऽनुब्रूहि । तू सौ रुपये देकर खरीदा हुआ मेरे अनुकूल बोल । त्वं सहस्राय परिक्रीतोऽनुब्रूहि । तू हजार रुपये देकर खरीदा हुआ मेरे अनुकूल बोल । (करण) त्वं शतेन परिक्रीतोऽनुब्रूहि । तू सौ रुपये से खरीदा हुआ मेरे अनुकूल बोल । त्वं सहस्रेण परिक्रीतोऽनुब्रूहि । तू हजार रुपये से खरीदा हुआ मेरे अनुकूल बोल ।
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सिद्धि - (१) त्वं शताय परिक्रीतोऽनुब्रूहि । यहां परिक्रयण अर्थ में अत्यन्त साधक 'शतम्' है। अत: उस कारक की 'सम्प्रदान' संज्ञा होती है। इसलिये उसमें 'चतुर्थी सम्प्रदाने' (२।३।१३) से चतुर्थी विभक्ति हो जाती है। इसी प्रकार-त्वं सहस्राय परिक्रीतोऽनुब्रूहि ।
(२) त्वं शतेन परिक्रीतोऽनुब्रूहि । यहां परिक्रयण अर्थ में अत्यन्त साधक 'शतम्' है। अत: उस कारक की पक्ष में करण संज्ञा होती है। इसलिये उसमें 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' ( ३/२/१८) से तृतीया विभक्ति हो जाती है। इसी प्रकार - सहस्रेण परिक्रीतोऽनुब्रूहि । विशेष- 'परिक्रयणम्' का अर्थ किसी व्यक्ति को नियत समय तक वेतन आदि देकर अपनाना है, उसे बिलकुल खरीद लेना अर्थ नहीं है।
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