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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
अर्थ:- क्रियायाः सिद्धौ यत् साधकतमं कारकं तत् करणसंज्ञकं
भवति ।
उदा० -देवदत्तो दात्रेण लुनाति । यज्ञदत्तो परशुना छिनत्ति । आर्यभाषा-अर्थ-क्रिया की सिद्धि में (साधकतमम्) जो अत्यन्त साधक (कारकम्) कारक है, उसकी (करणम्) करण संज्ञा होती है।
उदा० -देवदत्तो दात्रेण लुनाति । देवदत्त दरांती से लावणी करता है। यज्ञदत्तो परशुना छिनत्ति । यज्ञदत्त कुल्हाड़े से काटता है।
सिद्धि-देवदत्तो दात्रेण लुनाति । यहां 'लुनाति' 'लूञ् छेदने' (क्रया० उ० ) क्रिया की सिद्धि में 'दात्रम्' अत्यन्त साधक कारक है, अतः उसकी 'करण' संज्ञा होती है। इसलिये उसमें 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' (३1२1१८) से तृतीया विभक्ति होती है। इसी प्रकारर-यज्ञदत्तो परशुना छिनत्ति ।
कर्मसंज्ञा करणसंज्ञा च
(२) दिवः कर्म च । ४३ ।
प०वि०-दिवः ६।१ कर्म १ १ च अव्ययपदम् । अनु०- 'साधकतमं करणम्' इत्यनुवर्तते ।
अन्वयः - दिवः साधकतमं कारकं कर्म करणं च ।
अर्थ:- दिव्- धातोः प्रयोगे यत् साधकतमं कारकं तत् कर्मसंज्ञक करणसंज्ञकं च भवति ।
उदा० - (कर्म) सोऽक्षान् दीव्यति । (करणम् ) सोऽक्षैर्दीव्यति ।
आर्यभाषा - अर्थ - (दिवः) दिव् धातु के प्रयोग में (साधकतमम्) जो अत्यन्त साधक (कारकम् ) कारक है उसकी (कर्म) कर्म संज्ञा (च) और (करणम्) करण संज्ञा होती है। उदा०- ०- (कर्म) सोऽक्षान् दीव्यति । वह पासों से खेलता है। (करण) सोऽक्षैर्दीव्यति । वह पासों से खेलता है।
सिद्धि-सोऽक्षान् दीव्यति । यहां 'दीव्यति' 'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदस्वप्नकान्तिगतिषु ( दि०प०) धातु के प्रयोग में अत्यन्त साधक 'अक्षम्' है, अतः उस कारक की कर्म संज्ञा होती है। इसलिये उसमें 'कर्मणि द्वितीया' (२ 1३1२) से द्वितीया विभक्ति हो जाती है।
(२) सोऽक्षैर्दीव्यति । यहां 'दीव्यति' धातु के प्रयोग में अत्यन्त साधक 'अक्षम्' है । अत: उस कारक की 'करण संज्ञा होती है। इसलिये उसमें कर्तृकरणयोस्तृतीया' (२/२/१८) से तृतीया विभक्ति हो जाती है।
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