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प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
(१०) अनुप्रतिगृणश्चा४१। प०वि०-अनु-प्रतिगृण: ६ ।१ च अव्ययपदम्।
स०-अनुश्च प्रतिश्च तौ-अनुप्रती, ताभ्याम्-अनुप्रतिभ्याम् । अनुप्रतिभ्यां गृणा, इति अनुप्रतिगृणा, तस्य-अनुप्रतिगृण: (इतरेतरद्वन्द्वगर्भितपञ्चमीतत्पुरुषः)।
अनु०- पूर्वस्य कर्ता, सम्प्रदानम्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अनुप्रतिगृणश्च पूर्वस्य कर्ता सम्प्रदानम्।
अर्थ:-अनुप्रतिभ्यां परस्य गृणातेर्धातो: प्रयोगेऽपि य: पूर्वस्य कर्ता, तत् कारकं सम्प्रदानसंज्ञकं भवति।
उदा०- (अनु) होत्रेऽनुगृणाति। (प्रति) होत्रे प्रतिगृणाति। होता प्रथमं शंसति, तमन्य: प्रोत्साहयतीत्यर्थः । अनुपूर्व: प्रतिपूर्वश्च गृणाति: शंसितु: प्रोत्साहनेऽर्थे वर्तते।
आर्यभाषा-अर्थ- (अनुप्रतिगृण:) अनु और प्रति उपसर्ग से परे 'गृणाति' गृ स्तुती (क्रया०प०) धातु के प्रयोग में (च) भी (पूर्वस्य कर्ता) जो पूर्व क्रिया का कर्ता है (कारक:) उस कारक की (सम्प्रदानम्) सम्प्रदान संज्ञा होती है।
उदा०-(अनु) होत्रेऽनुगृणाति। (प्रति) होने प्रतिगृणाति। प्रथम होता ऋचा का उच्चारण करता है, उसे कोई दूसरा प्रोत्साहित करता है।
सिद्धि-होत्रेऽनगणाति। यहां प्रथम वाक्य यह है-होता शंसति । इस वाक्य की 'शंसति' क्रिया का कर्ता होता' है। अत: उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा है। इसलिये उसमें 'चतुर्थी सम्प्रदाने' (२।३।१३) से चतुर्थी विभक्ति होती है।
विशेष-अनु और प्रति उपसर्गपूर्वक गृणाति' धातु शंसिता ऋचा का उच्चारण करनेवाले को प्रोत्साहित करने अर्थ में प्रयुक्त होती है।
करणसंज्ञा साधकतमम्
(१) साधकतमं करणम्।४२। प०वि०-साधकतमम् ११ करणम् ११ । स०-साधकतमं कारकं करणम्।
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