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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-क्रोध:=अमर्षः। द्रोह:=अपकारः। ईर्ष्या अक्षमा। असूया गुणेषु दोषारोपणम्। (क्रोधार्थस्य) स देवदत्ताय क्रुध्यति । (द्रोहार्थस्य) स देवदत्ताय द्रुयति । (ईर्ष्यार्थस्य) स देवदत्ताय ईर्ण्यति। (असूयार्थस्य) स देवदत्ताय असूयति।
आर्यभाषा-अर्थ- (कुधदुहेासूयार्थानाम्) क्रोध, द्रोह, ईर्ष्या और असूया अर्थवाली धातुओं के प्रयोग में (यं प्रति कोप:) जिसके प्रति क्रोध करना' जो अर्थ है, (कारकम्) उस कारक की (सम्प्रदानम्) सम्प्रदान संज्ञा होती है।
उदा०-(क्रोधार्थक) स देवदत्ताय क्रुध्यति। वह देवदत्त के प्रति क्रोध करता है। (द्रोहार्थक) स देवदत्ताय दुयति। वह देवदत्त के प्रति द्रोह करता है। (ईर्थि) स देवदत्ताय ईष्यति। वह देवदत्त के प्रति ईर्ष्या करता है। (असूयार्थक) स देवदत्ताय असूयति। वह देवदत्त की असूया (निन्दा) करता है।
सिद्धि-(१) स देवदत्ताय क्रुध्यति। वह देवदत्त के प्रति क्रोध करता है। यहां क्रुध क्रोपे' (दि०प०) धातु के प्रयोग में देवदत्त के प्रति क्रोध' है, अत: उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा है। इसलिये यहां चतुर्थी सम्प्रदाने (२।३।१३) से चतुर्थी विभक्ति हो जाती है।
(२) इसी प्रकार 'दुह जिघांसायाम्' (दि०प०) 'ईर्घ्य इार्थ:' (भ्वा०प०) 'असूय उपतापे (कण्ड्वादि) धातुओं के प्रयोगों में भी सम्प्रदान संज्ञा समझ लेवें।
विशेष-क्रोध कोप ही है। द्रोह आदि भी कोप से ही उत्पन्न होते हैं। अत: यं प्रति कोप:' यह सामान्यरूप में कहा गया है।
कर्मसंज्ञा यं प्रतिकोपः
(७) क्रुधद्रुहोरुपसृष्टयोः कर्म ।३८ । प०वि०-क्रुध-द्रुहो: ६।२ उपसृष्टयो: ६।२ कर्म १।१। स०-क्रुधश्च द्रुह् च तौ क्रुधद्रुहौ, तयो:-क्रुधद्रुहो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-'यं प्रति कोप:' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-उपसृष्टयो: क्रुधद्रुहो: यं प्रति कोप: कारकं कर्म।
अर्थ:-उपसृष्टयो:-उपसर्गयुक्तयो: क्रुधद्रुहोर्धात्वोः प्रयोगे य: यं प्रति कोपः' अर्थ:, तत् कारकं कर्मसंज्ञकं भवति ।
। उदा०- (क्रुध:) स देवदत्तम् अभिक्रुध्यति। (द्रुहः) स देवदत्तम् अभिद्रुह्यति।
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