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प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
२३६ आर्यभाषा-अर्थ-(उपसृष्टयो:) उपसर्ग से युक्त (क्रुधद्रुहो:) क्रुध् और द्रुह् धातुओं के प्रयोग में (यं प्रति कोप:) जिसके प्रति क्रोध करना' जो अर्थ है, (कारकम्) उस कारक 'की (कर्म) कर्म संज्ञा होती है।
उदा०-(क्रुध) स देवदत्तम् अभिक्रुध्यति। वह देवदत्त के प्रति क्रोध करता है। (दुह) से देवदत्तम् अभिद्रुह्यति । वह देवदत्त के प्रति द्रोह करता है।
सिद्धि-स देवदत्तम् अभिक्रुध्यति । यहां अभि उपसर्गपूर्वक क्रुध कोपे' (दि०प०) धातु के प्रयोग में देवदत्त के प्रति क्रोध है, अत: उस कारक की कर्म संज्ञा है। इसलिये उसमें कर्मणि द्वितीया' (२।३।२) से द्वितीया विभक्ति होती है।
सम्प्रदानसंज्ञा विप्रश्न:
(८) राधीक्ष्योर्यस्य विप्रश्नः ।३६ । प०वि०-राधि-ईक्ष्यो: ६।२ यस्य ६।१ विप्रश्न: ११ । राधिश्च ईक्षिश्च तौ-राधीक्षी, तयो:-राधीक्ष्यो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। विविध: प्रश्न इति विप्रश्न:।
अनु०-सम्प्रदानम्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-राधीक्ष्योर्यस्य विप्रश्न: कारकं सम्प्रदानम्।
अर्थ:-राधि-ईक्ष्योर्धात्वो: प्रयोगे, यस्य विषये विविधः प्रश्न क्रियते, तत् कारकं सम्प्रदानसंज्ञकं भवति।
उदा०- (राधि) स देवदत्ताय राध्यति । (ईक्षे) स देवदत्ताय ईक्षते । नैमित्तिक: पृष्ट: सन् देवदत्तस्य भाग्यं पर्यालोचयतीत्यर्थः ।
__ आर्यभाषा-अर्थ-(राधीक्ष्योः) राधि और इक्षि धातु के प्रयोग में (यस्य विप्रश्न:) जिसके विषय में विविध प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं, (कारकम्) उस कारक की (सम्प्रदानम्) सम्प्रदान संज्ञा होती है।
उदा०-(राधि) स देवदत्ताय राध्यति। वह नैमित्तिक (ज्योतिषी) देवदत्त के विषय में विविध प्रश्न पूछने पर उसके भाग्य को सिद्ध करता है। (ईक्षि) स देवदत्ताय ईक्षते। वह नैमित्तिक देवदत्त के विषय में विविध प्रश्न पूछने पर उसके भाग्य का पर्यालोचन करता है।
सिद्धि-स देवदत्ताय राध्यति । यहां 'राध्यति ‘राध संसिद्धौ' (दि०प०) धातु के प्रयोग में देवदत्त के विषय में विविध प्रश्न पूछे गये हैं अत: उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा
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