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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
में झीप्स्यमान अर्थ देवदत्त है, अत: उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा होती है। इसलिये उसमें 'चतुर्थी सम्प्रदाने (२ / ३ /१३) से चतुर्थी विभक्ति हो जाती है। ऐसा ही सर्वत्र समझें । (२) स देवदत्ताय तिष्ठते । यहां 'प्रकाशनस्थेयाख्ययोश्च' (अ० १ । ३ ।२३) से 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ (भ्वा०प०) धातु से आत्मनेपद होता है।
( ३ ) स देवदत्ताय शपते। यहां 'शप आक्रोशे इति वक्तव्यम्' (१ । ३ । २१) इस वार्तिक से शप् धातु से उपालम्भन अर्थ में आत्मनेपद होता है।
उत्तमर्ण:
(४) धारेरुत्तमर्णः । ३५ ।
प०वि०-धारे: ६ ।१ उत्तमर्णः १ । १ ।
स० ॠणे उत्तम इति उत्तमर्ण: ( बहुव्रीहि: ) । 'सप्तमी विशेषणे बहुव्रीहौं' (२।२।३५) इति सप्तम्यन्तस्य ऋणशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते निपातनात् परनिपातः ।
अनु०-‘सम्प्रदानम्' इत्यनुवर्तते ।
अन्वयः - धारेरुत्तमर्णः कारकं सम्प्रदानम् ।
अर्थ:-धारि-धातोः प्रयोगे य उत्तमर्णोऽर्थ:, तत् कारकं सम्प्रदानसंज्ञकं
भवति ।
उदा०-स देवदत्ताय शतं धारयति। कस्य चोत्तममृणम् ? यदीयं धनम्, यो धनस्वामी स उत्तमर्ण: ।
आर्यभाषा-अर्थ-(धारे:) धारयति धातु के प्रयोग में (उत्तमर्ण:) जो ऋण में उत्तम है अर्थात् धन का स्वामी है (कारकम् ) उस कारक की ( सम्प्रदानम् ) सम्प्रदान संज्ञा होती है।
उदा० - स देवदत्ताय शतं धारयति । वह देवदत्त का सौ रुपये का कर्जदार है। 'उत्तमर्ण' किसे कहते हैं ? जो धन का स्वामी है, उसे 'उत्तमर्ण' कहते हैं। कर्जा लेनेवाले को 'अधमर्ण' कहा जाता है ।
सिद्धि-स देवदत्ताय शतं धारयति । वह देवदत्त का सौ रुपये का कर्जदार है। यहां 'धारयति' धातु के प्रयोग में देवदत्त' उत्तमर्ण है, धन का स्वामी है, अत: उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा होती है। इसलिये उसमें 'चतुर्थी सम्प्रदाने' (२ / ३ /१३ ) से चतुर्थी विभक्ति हो जाती है।
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