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प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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सिद्धि-(१) कृत्यै। कृति+ङे । कृति+ए । कृति+आट्+ए । कृति+ऐ । कृत्यै। यहां नदी संज्ञा होने से 'आण् नद्या:' (७ । ३ । ११२) से 'आट्' आगम होता है और 'आटश्च' (६ 1१1९०) से वृद्धिरूप एकादेश होता है।
(२) कृतये । कृति + ङे । कृति+ए । कृते+ए । कृतये ।
यहां नदी संज्ञा होने से 'शेषो घ्यसखि ' (१।४।७) से घि' संज्ञा होती है । अत: 'घेर्डिति (४।३।१११) से अङ्ग को गुण हो जाता है।
इसी प्रकार धेनु, श्री और थ्रू शब्द से उपरिलिखित शब्द रूप सिद्ध करें ।
घिसंज्ञाप्रकरणम्
सखिवर्जं शेषो घि
(१) शेषो घ्यसखि । ७ ।
प०वि० - शेषः १ ।१ घि १ । १ असखि १ । १ । सo - न सखि इति असखि ( नञ्तत्पुरुषः ) ।
अर्थ:-शेषोऽत्र घि-संज्ञको भवति, सखिशब्दं वर्जयित्वा । कश्च शेष: ? ह्रस्वमिकारान्तमुकारान्तं यन्न स्त्री - आख्यम्, स्त्री-आख्यं च यन्न नदीसंज्ञकं स शेषः ।
उदा०-इकारान्तम्-(अग्नि) अग्नये । (कृतिः ) कृतये । उकारान्तम्-(वायुः) वायवे । ( धेनुः) धेनवे । असखीति किमर्थम् ? सख्ये । आर्यभाषा - अर्थ - ( शेषः) शेष शब्द की यहां (घि) घि संज्ञा होती है (असखि) सखि शब्द को छोड़कर। शेष शब्द कौनसा है ? जो शब्द ह्रस्व इकारान्त, उकारान्त और स्त्रीलिङ्ग नहीं है और जो स्त्रीलिङ्ग है किन्तु नदी संज्ञक नहीं है वह शब्द शेष है। उदा०-इकारान्त- (अग्नि) अग्नये । (कृति) कृतये । उकारान्त - (वायु) वायवे । (धेनु) धेनवे । 'असखि' शब्द का प्रयोग इसलिये किया गया है कि यहां घि संज्ञा न 'हो- सख्ये ।
सिद्धि - (१) अग्नये । अग्नि + ङे । अग्नि+ए । अग्ने+ए । अग्नये ।
यहां घि-संज्ञक अग्नि शब्द से 'ङे' प्रत्यय करने पर 'घेर्डिति' (७/३ 1१११) से अङ्ग को गुण हो जाता है। इसी प्रकार कृति, वायु और धेनु शब्दों से उपरिलिखित शब्दरूप सिद्ध करें ।
गुण
(२) सखि शब्द की घि-संज्ञा न होने से 'घेर्हिति' (७ |३ | १११) से अङ्ग को नहीं होता है।
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