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प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः एकसंज्ञाधिकार:
(१) आकडारादेका संज्ञा।१। प०वि०-आ अव्ययपदम् । कडारात् ५।१ एका १।१ संज्ञा ११ ।
अर्थ:-कडारात्='कडारा: कर्मधारये' एतस्मात् आ अवधे: पूर्वमेका संज्ञा भवतीत्यधिकारोऽयम् । का पुनरसौ ? या पराऽनवकाशा च । वक्ष्यति ह्रस्वं लघु, भिद्-भेत्ता। छिद्-छेत्ता। संयोगे गुरु-शिक्षा। भिक्षा। संयोगपरस्य ह्रस्वस्य लघुसंज्ञा प्राप्नोति, गुरुसंज्ञा च। कडारात् प्राग् एका संज्ञा भवतीति वचनाद् गुरुसंज्ञैव भवति। .
आर्यभाषा-अर्थ-(कडारात्) 'कडारा: कर्मधारये (२/२।३८) इस (आ) अवधि से पहले (एका) एक ही संज्ञा होती है, यह अधिकार है। कौनसी संज्ञा होती है ? जो पर हो और अवकाशरहित हो। जैसे कहेगा कि 'हस्वं लघु' (अ० १।४।१०) अर्थात् ह्रस्व वर्ण की लघु संज्ञा होती है, जैसे कि 'भिद्’ यहां ह्रस्व 'इ' की लघुसंज्ञा है। इसलिये 'भेत्ता' शब्द में 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से लघूपध' गुण हो जाता है। इसी प्रकार छिद्' धातु से छेत्ता' शब्द सिद्ध होता है।
'संयोगे गुरु' (अ० १।४।११) अर्थात् संयोग परे होने पर ह्रस्व वर्ण की गुरु संज्ञा होती है। जैसे-शिक्षा। भिक्षा। यहां ह्रस्व इ' की हस्वं लघु (अ० १।४।१०) से ह्रस्व संज्ञा प्राप्त होती है और संयोग परे होने से 'संयोगे गुरु' (अ० १।४।११) से गुरु संज्ञा भी मिलती है। कडारा: कर्मधारये' (अ० २।२।३८) तक एक ही संज्ञा होती है, इस एक संज्ञा अधिकार से यहां परवर्तिनी और अवकाशरहित एक गुरु संज्ञा होती है, लघु संज्ञा नहीं। क्योंकि लघु को जहां संयोग परे नहीं है, वहां भिद्, छिद् आदि में अवकाश है। तुल्यबलविरोधे परं कार्यम्
(१) विप्रतिषेधे परं कार्यम्।२। प०वि०-विप्रतिषेधे ७।१ परम् १।१ कार्यम् १।१।
अर्थ:-विप्रतिषेधे-तुल्यबलविरोधे सति परं कार्यं भवति । यत्र द्वौ प्रसङ्गौ भिन्नार्थी, एकस्मिन्नर्थे युगपत् प्राप्नुतः, स तुल्यबलविरोधो
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