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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आत्मनेपद 'त' आदेश होता है । पूर्ववत् 'स्य' प्रत्यय और उसको 'आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७/२/३५ ) से 'इट्' आगम होता है।
(५) अकल्प्स्यत् । कृप्+लिङ् । अट्+कल्प्+स्य+तिप् । अ+कल्प् स्य+त् । अकल्प्स्यत् ।
यहां 'कृपू सामर्थ्ये' (भ्वादि०) धातु से 'लिनिमित्ते लृङ् क्रियातिपत्तौँ (३ | ३ | १३९ ) से 'लृङ्' प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद 'तिम्' आदेश होता है। 'स्यातासी लृलुटोः' (३ 1१1३३) से 'स्य' प्रत्यय है । 'न वृद्भ्यश्चतुर्भ्यः' (७/२/५९) से परस्मैपद में 'इट्' आगम का निषेध है।
(६) अकल्पिष्यत् । कृप्+लृङ् । अट्+कल्प्+स्य+त। अ+कल्प्+इट्+स्य+त। अ+कल्प्+इ+ष्य+त । अकल्पिष्यत ।
यहां कृपू सामर्थे' (भ्वादि०) धातु से पूर्ववत् 'लृङ्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद 'त' आदेश होता है। पूर्ववत् स्य' प्रत्यय और उसको 'आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७/२/३५) से 'इट्' आगम होता है।
(७) चिकल्प्सति । कृप्+सन्। कल्प्+स। कल्प्+कल्प्+स। क+कल्प्+स । कि+कल्प्+स । चि+कल्प्+स। चिकल्प्स+लट् । चिकल्पस+शप्+तिप् । चिकल्प्स्+अ+ति । चिकल्प्सति ।
यहां प्रथम कृपू सामर्थ्ये' धातु से 'धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।१।७) से 'सन्' प्रत्यय, 'सन्यङो:' ( ६ 18 1९ ) से धातु को द्विर्वचन, 'सन्यत : ' ( ७/४/७९) से अभ्यास के 'अ' को इकारादेश और 'अभ्यासे चर्च ( ८12 1५४) से अभ्यास के 'क' को चर्-आदेश होता है। तत्पश्चात् 'चिकल्प्स' धातु से 'लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद 'तिप्' आदेश होता है। 'न वृद्भ्यश्चतुर्भ्यः' (७12149) से परस्मैपद में इट् आगम का निषेध है।
(८) चिकल्पिषते । कृप्+सन् । कल्प्+स। कल्प्+कल्प्+स। क+कल्प्+इट्+स । कि+कल्प्+इ+स। चि+कल्प्+इ+ण | चिकल्पिण+लट् । चिकल्पिण+शप्+त । चिकल्पिष+अ+ते । चिकल्पिषते ।
यहां 'कृपू सामर्थ्ये' ( वा०आ०) धातु से पूर्ववत् सन् प्रत्यय और अभ्यास- कार्य है। 'आर्धधातुकस्येवलादेः' (७/२/३५) से 'इट्' का आगम होता है । सन्नन्त चिकल्पिष' धातु से 'लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद 'त' आदेश होता है ।
विशेष - पाणिनीय धातुपाठ में कृपू सामर्थ्ये (भ्वादि०) धातु पढ़ी है। कृपो रो ल:' (८ 1२1१८) से उसी के रेफ वर्णांश को लकार आदेश होकर 'क्लृप्' रूप बनता है। इति पण्डितसुदर्शनदेवाचार्यविरचिते पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचने प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः ।
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