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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(निगरणार्थेभ्य:) निगारयति। आशयति। भोजयति। (चलनार्थेभ्य:) चलयति। चोपयति । कम्पयति ।
आर्यभाषा-अर्थ-(णे:) णिच् प्रत्ययान्त (निगरणचलनार्थेभ्य:) निगलना और चलना अर्थवाली धातुओं से (कतीरे) कर्तृवाच्य में (परस्मैपदम्) परस्मैपद होता है।
उदा०-(निगरणार्थक) निगारयति । निगलवाता है। आशयति । खिलाता है। भोजयाति । भोजन कराता है। (चलनार्थक) चलयति। चलाता है। चोपयति। मन्द-मन्द चलाता है। कम्पयति । कपाता है।
सिद्धि-(१) निगारयति । नि+गृ+णिच् । नि+गार्+इ। निगारि+लट् । निगारि+शप्+तिप् । निगारे+अ+ति। निगारयति।
यहां नि उपसर्गपूर्वक निगरणे (तु०प०) धातु से हेतुमति च' (३।१।२६) से णिच्' प्रत्यय करने पर 'अचो मिति' (७।२।११५) से 'गृ' धातु को वृद्धि होती है। णिजन्त निगारि' धातु से 'लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद तिप्' आदेश होता है।
(२) आशयति । यहां 'अश् भोजने (क्रयादि०) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय करने पर 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से अश् धातु की उपधा को वृद्धि होती है। शेष पूर्ववत् है।
(३) भोजयति। यहां भुज पालनाभ्यवहारयोः' (रुधादि) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय करने पर पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से 'भुज्' धातु की उपधा को गुण होता है। शेष पूर्ववत् है।
(४) चलयति। यहां चल गतौ (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय करने पर अत उपधायाः' (७।२।११६) से चल' धातु की उपधा को वृद्धि होती है, किन्तु उसे मितां हस्वः' (६।४।९२) से ह्रस्व हो जाता है। शेष पूर्ववत् है।
(५) चोपयति। यहां चुप मन्दायां गतौ' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् णिच् प्रत्यय करने पर 'चुम्' धातु को पुगन्तलघूपधस्य च (७।३।८६) से लघूपध गुण होता है। शेष पूर्ववत् है।
(६) कम्पयति । यहां कपि चलने (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय करने पर 'इदितो नुम् धातोः' (७।११५८) से धातु को नुम्' आगम होता है। शेष पूर्ववत् है।
अणावकर्मकाच्चित्तवत्कर्तृकात्।८८। प०वि०-अणौ ७।१ अकर्मकात् ५।१ चित्तवत्कर्तृकात् ५।१ ।
स०-न णिरिति अणिः, तस्मिन्-अणौ (नञ्तत्पुरुषः)। न विद्यते कर्म यस्य स:-अकर्मकः, तस्मात् अकर्मकात् (बहुव्रीहिः) चित्तवान् कर्ता यस्य स:-चित्तवत्कर्तृकः, तस्मात्-चित्तवत्कर्तृकात् (बहुव्रीहिः)।
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