________________
प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः
२०१ __ यहां बुध अवगमने' (दि०आ०) धातु से प्रथम हेतुमति च' (३।१।२६) से णिच्' प्रत्यय और तत्पश्चात् णिजन्त बोधि' धातु से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद 'तिप्' आदेश होता है। 'बुध्' धातु को 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।६।८६) से लघूपध गुण होता है। इसी प्रकार युध सम्प्रहारे' (दि०आ०) धातु से-योधयति।
(२) नाशयति । यहां ‘णश् अदर्शने (दिवादि) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय करने पर 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से नश्' धातु के उपधा अकार को वृद्धि होती है। शेष पूर्ववत् है।
(३) जनयति। यहां जनी प्रादुर्भाव (दिवादि) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय करने पर 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से जन् धातु के उपधा अकार को वृद्धि प्राप्त होती है, किन्तु जनिवध्योश्च(७।३।३५) से उसका निषेध हो जाता है। शेष पूर्ववत् ।
(४) अध्यापयति। अधि+इड्+णिच् । अधि+इ+इ। अधि+आ+पुक्+इ। अध्यापि+लट् । अध्यापि+शप्+तिम्। अध्यापे+अ+ति । अध्यापयति।
यहां अधि उपसर्गपूर्वक 'इङ् अध्ययने (अ०आ०) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय करने पर क्रीजीनां णौ' (६।१।४८) से इङ्' धातु को आकार आदेश और 'अर्तिही०' (७।३।३६) से 'पुक्' आगम होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(५) प्रावयति । यहां घुङ् गतौं' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् णिच्’ प्रत्यय करने पर अचो णिति' (७।२।११५) से 'पु' धातु को वृद्धि होती है। शेष कार्य पूर्ववत् है। इसी प्रकार द्रु गतौ' (भ्वा०प०) से 'द्रावयति' और 'त्रु गतौ' (भ्वा०न०) से स्रावयति शब्द सिद्ध होता है।
विशेष-यहां णिचश्च' (१।३।७४) से क्रियाफल के कर्ता को अभिप्रेत होने पर 'णिचश्च' (१।३ १७४) से आत्मनेपद प्राप्त था किन्तु इस सूत्र से परस्मैपद का विधान किया गया है।
निगरणचलनार्थेभ्यश्च।८७। प०वि०-निगरण-चलनार्थेभ्य: ५।३ च अव्ययपदम्।
स०-निगरणं च चलनं च ते-निगरणचलने, निगरणचलने अर्थों येषां ते-निगरणचलनार्थाः, तेभ्य:-निगरणचलनार्थेभ्यः (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहि:)।
अनु०-'णे:' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-णेनिंगरणचलनार्थेभ्यश्च कर्तरि परस्मैपदम् ।
अर्थ:-णिजन्तेभ्यो निगरणार्थेभ्यश्चलनार्थेभ्यश्च धातुभ्य: कतरि परस्मैपदं भवति।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org