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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां 'भू सत्तायाम् (श्वा०प०) धातु से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद तिप्' आदेश होता है। इसी प्रकार या प्रापणे (अ०प०) तथा वा गतिगन्धनयोः' (अ०प०) धातु से याति और वाति शब्द सिद्ध होते हैं।
विशेष-(१) अनुदात्तङित आत्मनेपदम् (१।३।१२) से जो आत्मनेपद का विधान किया गया है, भू, या और वा धातु उदात्तेत् होने से उससे शेष (अन्य) हैं, अत: इनसे परस्मैपद होता है।
(२) नेर्विश: (१।३।१७) से नि उपसर्ग से परे विश् धातु से आत्मनेपद का विधान किया है। प्र उपसर्गपूर्वक विश् धातु उससे शेष (अन्य) है। अत: उससे परस्मैपद होता है। प्र+विशति-प्रविशति।
विशेष-प्रश्न- 'कर्तरि कर्मव्यतिहारे' (१।३।१४) से कर्तरि' पद की अनुवृत्ति है ही, फिर यहां शेषात् कर्तरि परस्मैपदम्' में कर्तरि' पद का ग्रहण क्यों किया गया है ?
उत्तर-यहां कतरि' पद का पुन: ग्रहण इसलिये किया गया है कि जो कर्ता ही कर्ता है। अर्थात् शुद्ध कर्ता है, वहां परस्मैपद हो, किन्तु जो कर्मकर्ता है अर्थात् कर्म से कर्ता बना है, वहां परस्मैपद न हो, अपितु वहां आत्मनेपद हो। देवदत्त ओदनं पचति । पच्यते ओदनं स्वयमेव । भात अपने आप ही पक रहा है। डुकृञ् करणे (त०उ०)
अनुपराभ्यां कृञः ७६ | प०वि०-अनु-पराभ्याम् ५।२ कृञ: ५।१।
स०-अनुश्च पराश्च तौ अनुपरौ, ताभ्याम्-अनुपराभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-'कतरि, परस्मैपदम्' इत्यनुवर्तते, आपादसमाप्तेः । अन्वय:-अनुपराभ्यां कृज: कर्तरि परस्मैपदम्।। अर्थ:-अनुपराभ्यां परस्मात् कृञ्-धातो: कीर परस्मैपदं भवति ।
उदा०-(अनु) अनुकरोति । अनुकरणं करोतीत्यर्थः । (परा) पराकरोति । दूरं करोतीत्यर्थः।।
. आर्यभाषा-अर्थ-(अनुपराभ्याम्) अनु और परा उपसर्ग से परे (कृजः) कृञ् धातु से (कतार) कर्तृवाच्य में (परस्मैपदम्) परस्मैपद होता है।
. उदा०-(अनु) अनुकरोति । अनुकरण करता है। (परा) पराकरोति। दूर करता है।
सिद्धि-अनुकरोति। अनु+कृ+लट् । अनु+कृ+उ+तिम्। अनु+कर+ओ+ति। अनुकरोति।
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