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________________ प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः १६७. यहां 'अनु' उपसर्ग से परे 'डुकृञ् करणे' (त०3०) धातु से 'लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद तिप्' आदेश होता है। यहां 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' ( ७ । ३ ।८४) से 'कृ' धातु और 'उ' विकरण प्रत्यय को गुण होता है। ऐसे ही परा+करोति=पराकरोति । क्षिप प्रेरणे (तु० उ० ) - अभिप्रत्यतिभ्यः क्षिपः । ८० । प०वि०-अभि-प्रति- अतिभ्य: ५ । ३ क्षिप: ५ । १ । स०-अभिश्च प्रतिश्च अतिश्च ते - अभिप्रत्यतयः, तेभ्यःअभिप्रत्यतिभ्यः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अन्वयः - अभिप्रत्यतिभ्यः क्षिपः कर्तरि परस्मैपदम् । अर्थ:-अभि-प्रति-अतिभ्यः परस्मात् क्षिप - धातोः कर्तरि परस्मैपदं भवति । उदा०- (अभि) अभिक्षिपति । समक्षं क्षिपतीत्यर्थः । ( प्रति ) प्रतिक्षिपति । विरुद्धं क्षिपतीत्यर्थ: । (अति) अतिक्षिपति । अधिकं क्षिपतीत्यर्थः । आर्यभाषा - अर्थ - (अभि-प्रति- अतिभ्यः) अभि, प्रति और अति उपसर्ग से परे (क्षिप: ) क्षिप् धातु से (कर्तीर) कर्तृवाच्य में (परस्मैपदम् ) परस्मैपद होता है। उदा० - अभि- अभिक्षिपति । सामने फैंकता है। प्रति-प्रतिक्षिपति । उलटा फैंकता है। अति- अतिक्षिपति। अधिक फैंकता है। सिद्धि-अभिक्षिपति । अभि+क्षिप्+लट् । अभि+क्षिप्+श+तिप् । अभि+क्षिप्+अ+ति । अभिक्षिपति । यहां अभि उपसर्ग से परे 'क्षिप प्रेरणे' (तु०3०) धातु से 'लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद 'तिप्' आदेश होता है । 'तुदादिभ्य: श: ' ३ | १/७७ ) से 'श' विकरण प्रत्यय होता है । प्रति+क्षिपति = प्रतिक्षिपति । अति+क्षिपति = अतिक्षिपति । वह प्रापणे (भ्वा० उ० ) - पं०वि०-प्रात् ५ ।१ वह: ५ ।१ । (अनु०) - प्राद् वह: कर्तरि परस्मैपदम् । अर्थ:-प्रात् परस्माद् वह- धातोः कर्तरि परस्मैपदं भवति । - (प्र) प्रवहति । जोर से बहता है । उदा० प्राद् वहः । ८१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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