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प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः
१८३ यहां मृङ् प्राणत्यागे (तु०आ०) धातु से वर्तमाने लट् से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। तुदादिभ्यः श: (३१७७) से विकरण 'श' प्रत्यय होने से मृ धातु शित् प्रत्यय से सम्बन्धित है। रिङ्शयगलिङ्च (७।४।२८) से मृ' धातु को 'रिङ्' आदेश और उसको 'अचि अनुधातुभुवा०' (६।४ १७७) से 'इयङ्' आदेश होता है।
विशेष-मृङ् धातु से 'अनुदात्तडित आत्मनेपदम् (१।३।१२) से आत्मनेपद सिद्ध था, फिर यह आत्मनेपद का विधान इस नियम के लिये है कि लुङ् लिङ्ग, और शित् प्रत्यय से सम्बन्धित मृङ् धातु से ही आत्मनेपद हो, अन्यत्र न हो। सन्नन्त-धातुः
(५०) पूर्ववत् सनः।१२। प०वि०-पूर्ववत् अव्ययपदम् । सन: ५।१। पूर्वेण तुल्यमिति पूर्ववत् (तद्धितवृत्ति:)। अन्वय:-सन: पूर्ववत् कर्तरि आत्मनेपदम् ।
अर्थ:-सन: पूर्वो यो धातुरात्मनेपदी, तेन तुल्यं सन्नन्तादपि कर्तरि आत्मनेपदं भवति। येन निमित्तेन पूर्वं धातोरात्मनेपदं विधीयते तेनैव निमित्तेन सन्नन्तादप्यात्मनेपदं भवतीत्यर्थः ।
उदा०-(आस्) आस्ते । आसिसिषते। (शीङ्) शेते। शिशयिषते।
आर्यभाषा-अर्थ-(पूर्ववत्) सन् प्रत्यय से पूर्व जो धातु आत्मनेपदी है उसके समान (सन:) सन् प्रत्ययान्त धातु से भी (कतीरे) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है।
उदा०-(आस्) आस्ते। बैठता है। सन्-आसिसिषते। बैठना चाहता है। (शीइ) शेते। सोता है। सन्-शिशयिषते। सोना चाहता है।
सिद्धि-(१) आसिसिषते। आस्+सन् । आस्+इट्+स। आस्+इ+स। आसिष। आ सि+सि+ष। आसिसिष लट् । आसिसिष+शप्+त। आसिसिष+अ+ते। आसिसिषते।
यहां 'आस् उपवेशने (अ०आ०) धातु आत्मनेपदी है। उसी निमित्त से, सन् प्रत्यय करने पर भी 'आस्' धातु से लट्' प्रत्यय के स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। यहां सन्यो :' (६।१।९) से धातु को द्विवचन की विधि होने पर 'अजादेर्द्वितीयस्य' (६।१२) से द्वितीय एकाच अवयव को द्विवचन होता है।
(२) शिशयिषते। शीङ् स्वप्ने (अ०आ०) धातु. आत्मनेपदी है। उसी निमित्त से सन्' प्रत्यय करने पर भी शीङ्' धातु से आत्मनेपद ही होता है।
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