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________________ १८२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् मृङ् प्राणत्यागे (तु आo) (४६) म्रियतेलुंलिङोश्च।६१। प०वि०-म्रियते: ५।१ । लुङ्-लिङो: ६।२ च अव्ययपदम्। स०-लुङ् च लिङ् च तौ लुङ्लिङौ, तयोः-लुलिङोः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-'शित:' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-लुङ्लिडो: शितश्च म्रियते: कतरि आत्मनेपदम्। अर्थ:-लुङ्-लिड्सम्बन्धिन: शित्प्रत्ययसम्बन्धिनश्च मृ-धातो: कतरि आत्मनेपदं भवति। उदा-(लुङ्) अमृत । (लिङ्) मृषीष्ट। (शित्) म्रियते। आर्यभाषा-अर्थ-(लुङ्लिडोः) लुङ्, लिङ्सम्बन्धी (शित:, च) और शित् प्रत्यय सम्बन्धी (म्रियते:) मृ धातु से (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। उदा०-(लुङ्) अमृत। मर गया। (लिङ्) मृषीष्ट। मरे। (शित) म्रियते। मरता है। सिद्धि-(१) अमृत । मृ+लुङ् । अट्+मृ+फिलत। अमृ+सिच्+त । अट्+मृ+स्+त। अ+मृ+o+त। अमृत। यहां मृङ् प्राणत्यागे' (तु०आ०) धातु से 'लुङ्' (३।२।११०) से लुङ् प्रत्यय, और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। लि लुङि' (३।१।४३) से लि' प्रत्यय, च्ले: सिच् (३।१।४४) से च्लि' के स्थान में सिच' आदेश और ह्रस्वादगात (८।२।२७) से सिच्’ के सकार का लोप होता है। (२) मृषीष्ट । मृ+लिङ्। मृ+सीयुट्+त। मृ+सीय+सुट्+त। मृ+सी+स्+त। मृ+षी++ट । मृषीष्ट। यहां मृङ् प्राणत्यागे (तु आ०) धातु से विधिनिमन्त्रणा०' (३।३।१६१) से लिङ्ग' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। लिङः सीयुट् (३।४।१०२) से सीयुट्' आगम और सुट् तिथो:' (३।४।१०७) से त' को सुट् आगम होता है। लोपो व्योवलि (६।११६६) से 'य' का लोप, 'आदेश-प्रत्यययो: (८।३।५९) से षत्व और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से टुत्व होता है। (३) प्रियते। मृ+लट् । मृ+श+त। मृ+अ+त। म् रिङ्+अ+त। म् रि+अ+त। म् रियड्+अ+त। मिय्+अ+ते। म्रियते। होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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