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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् गृ निगरणे (तु०प०)
(४०) अवाद् ग्रः।५१। प०वि०-अवात् ५।१ ग्र: ५।१ अन्वय:-अवाद् ग्र: कर्तरि आत्मनेपदम् । अर्थ:-अव-उपसर्गपूर्वाद् गृ-धातो: कर्तरि आत्मनेपदं भवति । उदा०-अवगिरते। निगिरतीत्यर्थः ।
आर्यभाषा-अर्थ- (अवात्) अव उपसर्ग से परे (ग्रः) गृ धातु से (कतीरे) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है।
उदा०-अवगिरते। निगलता है।
सिद्धि-(१) अवगिरते । अव++लट् । अव+गृ+श+त । अव+गृ+अ+त। अव+ग् इ+अ+ते। अवगिरते।
यहां निगरणे (तु०प०) धातु से लट् प्रत्यय, और उसके स्थान में आत्मनेपद त-आदेश होता है। तुदादिभ्यः श:' (३।११७७) से 'श' विकरण प्रत्यय है। ऋत इद्धातो:' (७।१।१००) से धातु के 'ऋ' को 'इ' आदेश और वह उरण रपरः' (१।११५१) से रपर है-इ।।
विशेष- निगरणे' यह धातु तुदादिगण में पढ़ी गई है और य शब्दे' यह धातु क्रयादिगण में पढ़ी गई है। यहां तुदादिगण में पठित गनिगरणे' का ग्रहण होता है क्योंकि शब्दे' का अव उपसर्गपूर्वक प्रयोग नहीं है।
(४१) समः प्रतिज्ञाने।५२| प०वि०-सम: ५।१ प्रतिज्ञाने ७।१ । अनु०-'ग्रः' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-प्रतिज्ञाने सम: ग्र: कर्तरि आत्मनेपदम् ।
अर्थ:-प्रतिज्ञानेऽर्थे वर्तमानात् सम्-उपसर्गपूर्वाद् गृ-धातो: कतरि आत्मनेपदं भवति।
उदा०-शब्दं नित्यं संगिरते। प्रतिजानातीत्यर्थः । प्रतिज्ञानमभ्युपगमः, स्वीकरणम्।
आर्यभाषा-अर्थ-(प्रतिज्ञाने) स्वीकार करने अर्थ में विद्यमान, (समः) सम् उपसर्ग से परे (ग्र:) गृ धातु से (कतीर) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। शब्द नित्यं संगिरते। 'शब्द नित्य है' ऐसी प्रतिज्ञा करता है।
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