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प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः उदा०-अनुवदते कठ: कलापस्य । अनुवदते मौद्ग: पैप्पलादस्य। अनु: सादृश्येऽर्थे वर्तते । यथा कलापोऽधीयानो वदति तथा कठ इति । यथा च पैप्पलादोऽधीयानो वदति तथा मौद्ग इति।
आर्यभाषा-अर्थ-(व्यक्तवाचाम्) मनुष्यवाणी विषयक, (अनो:) अनु उपसर्ग से परे (अकर्मकात्) अकर्मक क्रियावाची (वद:) वद् धातु से परे (कतीरे) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है।
उदा०-अनुवदते कठः कलापस्य । जैसे अध्ययन करता हुआ कलाप बोलता है, वैसे ही कठ बोलता है। अनुवदते मौद्ग: पैप्लादस्य। जैसे पढ़ता हुआ पैप्लाद बोलता है, वैसे ही मौद्ग बोलता है। यहां 'अनु' शब्द सदृश अर्थ का वाचक है।
सिद्धि-अनुवदते । अनु वद्+लट् । अनु वद्+शप्+त । अनु+वद्+अ+ते। अनुवदते। यहां अनु उपसर्गपूर्वक अकर्मक वद् धातु से लट् प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश है।
(३६) विभाषा विप्रलापे।५०। प०वि०-विभाषा ११ विप्रलापे ७।१। अनु०-‘वद:, व्यक्तवाचां समुच्चारणे' इत्यनुवर्तते।
अर्थ:-विप्रलापात्मके व्यक्तवाचां समुच्चारणेऽर्थे वर्तमानाद् वदधातोर्विकल्पेन कर्तरि आत्मनेपदं भवति।
उदा०-विप्रवदन्ते सांवत्सरा: । विप्रवदन्ति सांवत्सरा:। युगपत् परस्परविरोधेन विरुद्धं वदन्तीत्यर्थः ।
आर्यभाषा-अर्थ-(विप्रलापे) परस्पर विरुद्ध कथन आत्मक (व्यक्तवाचाम्) मनुष्यों के (समुच्चारणे) साथ उच्चारण करने अर्थ में विद्यमान (वदः) वद् धातु से (करि) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है।
उदा०-विप्रवदन्ते सांवत्सराः। विप्रवदन्ति सांवत्सराः। सांवत्सरिक (ज्योतिषी) लोग एकदम परस्पर प्रतिषेधपूर्वक विरुद्ध बोलते हैं।
- सिद्धि-(१) विप्रवदन्ते । वि+प्र+व+लट् । वि+प्र+व+शप+झ। वि+प्र+व+अन्ते। विप्रवदन्ते। यहां वि-प्र उपसर्गपूर्वक विप्रलाप अर्थ में वद् धातु से लट् प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद झ-आदेश है। 'झोऽन्तः' (७।१।३) से (झ) के स्थान में अन्त-आदेश होता है।
(२) विप्रवदन्ति । वि+प्र+वद्+लट् । वि+प्र+वद्+झि। वि+प्र+वद्+अन्ति। विप्रवदन्ति। यहां वि-प्र उपसर्गपूर्वक विप्रलाप अर्थक वद् धातु से विकल्प पक्ष में लट् के स्थान में परस्मैपद झि-आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
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