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________________ १७० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-समर्थाभ्याम्=तुल्यार्थाभ्यां प्र-उपाभ्यामुपसर्गाभ्यां परस्मात् क्रमो धातो: कर्तरि आत्मनेपदं भवति। उदा०-(प्रात्) प्रक्रमते भोक्तुम्। (उपात्) उपक्रमते भोक्तुम् । आरभते इत्यर्थ: । आदिकर्मणि प्र-उपौ समर्थो-तुल्यार्थौ भवतः। आर्यभाषा-अर्थ-(समर्थाभ्याम्) समान अर्थवाले (प्र-उपाभ्याम्) प्र और उप उपसर्ग से परे (क्रम:) क्रम् धातु से (कतीर) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। उदा०-(प्र) प्रक्रमते भोक्तुम् । खाना आरम्भ करता है। आदिकर्म-क्रिया को आरम्भ करने अर्थ में प्र और उप उपसर्ग समानार्थक होते हैं। सिद्धि-प्रक्रमते । प्र+क्रम्+लट् । पूर्ववत् । ऐसे ही-उपक्रमते । (३२) अनुपसर्गाद् वा।४३। प०वि०-अनुपसर्गात् ५।१, वा अव्ययपदम्। स०-न उपसर्ग इति अनुपसर्गः, तस्मात्-अनुपसर्गात् (नञ्तत्पुरुषः) अनु०-'क्रम:' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अनुपसर्गात् कृञ: कतरि वाऽऽत्मनेपदम् । अर्थ:-अनुपसर्गात् उपसर्गरहितात् क्रमो धातो: परो कर्तरि आत्मनेपदं भवति। उदा०-क्रमते। क्रामति । गच्छतीत्यर्थः । आर्यभाषा-अर्थ-(अनपसर्गात्) उपसर्ग से रहित (क्रमः) क्रम् धातु से (कतीरे) कर्तृवाच्य में (वा) विकल्प से (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। उदा०-क्रमते। क्रामति। सिद्धि-(१) क्रमते । क्रम्+लट् । क्रम्+शप्+त। क्रम्+अ+ते। क्रमते। यहां क्रम पादविक्षेपे' (भ्वा०प०) धातु से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद 'त' होता है। (२) क्रामति । क्रम् लट् । क्रम्+शप्+तिप्। क्रम्+अ+ति । काम्+अ+ति। कामति । यहां क्रमु पादविक्षेपे' (भ्वा०प०) धातु से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद तिप्' आदेश होता है। क्रमः परस्मैपदेषु (७।३।७६) से क्रम्' धातु को दीर्घ होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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