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________________ १६६ प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः उदा०-आक्रमते आदित्यः । आक्रमते चन्द्रमाः । उदयते इत्यर्थः । आर्यभाषा-अर्थ-(उद्गमने) उदय होने अर्थ में विद्यमान (आङ:) आङ् उपसर्ग से परे (क्रमः) क्रम धातु से (करि) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। उदा०-आक्रमते आदित्यः । सूर्य उदय होता है। आक्रमते चन्द्रमाः। चन्द्रमा उदय होता है। सिद्धि-आक्रमते। आड्+क्रम्+लट् । आ+क्रम्+शप्+त । आ+क्रम+अ+ते। आक्रमते। यहां क्रमु पादविक्षेपे' (भ्वा०प०) धातु से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में 'आत्मनेपद' आदेश 'त' होता है। (३०) वेः पादविहरणे।४१। प०वि०-वे: ५।१ पाद-विहरणे ७।१। स०-पादस्य विहरणमिति पादविहरणम्, तस्मिन्-पादविहरणे (षष्ठीतत्पुरुष:)। विहरणम्=विक्षेपः । अनु०-'क्रमः' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-पादविहरणे वे: क्रम: कर्तरि आत्मनेपदम्। अर्थ:-पादविहरणेऽर्थे वर्तमानाद् वि-परस्मात् क्रमो धातो: कर्तरि आत्मनेपदं भवति। उदा०-सुष्ठु विक्रमते वाजी। साधु विक्रमते वाजी। अश्व: साधु पादविक्षेपं करोतीर्थः । आर्यभाषा-अर्थ-(पादविहरणे) पांव से चलने अर्थ में विद्यमान, वि उपसर्ग से परे (क्रमः) क्रम् धातु से (करि) कर्तवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। उदा०-सुष्ठु विक्रमते वाजी। घोड़ा अच्छे प्रकार से चलता है। अश्व आदि की गतिविशेष को विक्रमण कहते हैं। सिद्धि-विक्रमते । वि+क्रम्+लट् । वि+क्रम्+शप्+त। वि+क्रम्+अ+ते। विक्रमते । यहां 'वि' उपसर्ग से परे 'क्रमु पादविक्षेपे' (भ्वा०प०) धातु से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद 'त' आदेश होता है। (३१) प्रोपाभ्यां समर्थाभ्याम् ।४२। प०वि-प्र-उपाभ्याम् ५ ।२ समर्थाभ्याम् ५ ।२। स०-प्रश्च उपश्च तौ-प्रोपौ, ताभ्याम्-प्रोपाभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अन्वय:-समर्थाभ्यां प्रोपाभ्यां क्रम: कर्तरि आत्मनेपदम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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