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________________ १६८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां क्रमु पादविक्षेपे' (भ्वा०प०) धातु से वर्तमाने लट्' (३।२।१२३) से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। पूर्ववत् शप्' प्रत्यय है। (२८) उपपराभ्याम् ।३६ प०वि०-उप-पराभ्याम् ५।२। स०-उपश्च पराश्च तौ-उपपरौ। ताभ्याम्-उपपराभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-वृत्तिसर्गतायनेषु क्रमः' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-वृत्तिसर्गतायनेषु उपपराभ्यां क्रम: कर्तरि आत्मनेपदम्। अर्थ:-वृत्तिसर्गतायनेष्वर्थेषु वर्तमानाद् उप-परा-उपसर्गपूर्वात् क्रमो धातो: कर्तरि आत्मनेपदं भवति । उदा०-(वृत्तौ) उपक्रमते। पराक्रमते। न प्रतिहन्यते इत्यर्थः । (सर्गे) उपक्रमते। पराक्रमते। उत्सहते इत्यर्थः । (तायने) उपक्रमते। पराक्रमते। स्फीतीभवतीत्यर्थः । __ आर्यभाषा-अर्थ-(वृत्ति०) वृत्ति, सर्ग और तायन अर्थ में विद्यमान (उपपराभ्याम्) उप और परा उपसर्ग से परे (क्रम:) क्रम धातु से (कतार) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। उदा०-(वृत्ति) उपक्रमते। पराक्रमते। रुकता नहीं है। (सर्ग) उपक्रमते। पराक्रमते। उत्साह करता है। (तायन) उपक्रमते। पराक्रमते। बढ़ता है। सिद्धि-उपक्रमते। उप+क्रम+लट् । उप+क्रम+शप्+त। उप+क्रम+अ+ते। उपक्रमते। यहां उप' उपसर्ग से परे क्रमु पादविक्षेपे' (भ्वा०प०) धातु से 'वर्तमाने लट्' से लट् प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद 'त' आदेश होता है। ऐसे ही-परा+क्रमते। पराक्रमते। (२६) आङ उद्गमने।४०। प०वि०-आङ: ५।१ उद्गमने ७।१। अनु०-'क्रम:' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-उद्गमने आङ: क्रम: कर्तरि आत्मनेपदम्। अर्थ:-उद्गमनेऽर्थे वर्तमानाद् आङ्-उपसर्गपूर्वात् क्रमो धातो: कर्तरि आत्मनेपदं भवति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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