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________________ १६६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आचार्यत्वं क्रियते। (ज्ञाने) तत्त्वं नयते । तत्त्वं निश्चिनोतीत्यर्थ: । (भृतौ) कर्मकरानुपनयते। भृतिदानेन तान् स्वसमीपं प्रापयतीत्यर्थ: । (विगणने) करं विनयते। विगणनम्=ऋणादेनिर्यातनम्। राज्ञे देयं भागं परिशोधयतीत्यर्थ: । (व्यये) शतं विनयते । धर्मार्थं शतं विनुयङ्क्ते इत्यर्थः । आर्यभाषा-अर्थ-(सम्मानन०) सम्मानन, उत्सजन, आचार्यकरण, ज्ञान, भृति, विगणन और व्यय अर्थ में विद्यमान (निय:) नी धातु से (कतरि) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। ___उदा०-(सम्मानन) शास्त्रे नयते। आचार्य शास्त्रसिद्धान्त को शिष्यजनों को प्राप्त कराता है, उससे शिष्यों का सम्मान फलित होता है। (उत्सजन) दण्डम् उन्नयते । दण्ड को उठाता है। (आचार्यकरण) माणवकम् उपनयते। आचार्य बालक को विधिपूर्वक अपने समीप रखता है। उपनयनपूर्वक अध्यापन से उपनेता आचार्य बनता है। (ज्ञान) तत्त्वं नयते। तत्त्व का निश्चय करता है। (भृति) कर्मकरान् उपनयते। वेतन के दान से कर्मचारियों को अपने पास रखता है। (विगणन) करं विनयते । विगणन का अर्थ ऋण आदि का चुकाना है। राजा के लिये देयभाग को चुकाकर साफ करता है। (व्यय) शतं विनयते। धर्म के लिये सौ रुपये लगाता है। व्यय शब्द का अर्थ धर्मकार्य के लिये खर्च करना है। सिद्धि-नयते। नी++लट्+ । नी+शप्+त। ने+अ+त। नय्+अ+ते। नयते। यहां 'णी प्रापणे (भ्वा०3०) धातु से वर्तमाने लट्' (३।२।१२३) से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। पूर्ववत् शप् प्रत्यय है। (२६) कर्तृस्थे चाशरीरे कर्मणि।३७। प०वि०-कर्तृस्थे ७१ च अव्ययपदम्, अशरीरे ७ १ कर्मणि ७।१ । स०-कर्तरि तिष्ठतीति कर्तृस्थ:, तस्मिन् कर्तृस्थे (उपपदसमास:)। न शरीरम्, अशरीरम्, तस्मिन् अशरीरे (नञ्तत्पुरुषः)। अनु०-नियः' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-कर्तृस्थेऽशरीरे कर्मणि च निय: कतरि आत्मनेपदम्। अर्थ:-कर्तृस्थेऽशरीरे कमणि च सति नियो धातो: कर्तरि आत्मनेपदं भवति। उदा०-क्रोधं विनयते । मन्युं विनयते। क्रोधं मन्युं वाऽपगमयतीत्यर्थः । (१) उपनीय तु य: शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः।। सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते।। (मनुस्मृति) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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